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साहित्य के कंधों की जिम्मेदारियां

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  11-Jan-2024 | अनुज कुमार वाजपेई



मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया

हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया

बरबादियों का शौक माना फिजूल था,

बरबादियों का जश्न मनाता चला गया

मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया…

शायर साहिर लुधियानवी की लिखी ये पंक्तियाँ साहित्य और मनुष्य के जीवन के अंतर्संबंध को बेहद खूबसूरती से बयां करती हैं। ये पंक्तियाँ मनुष्यों को सुख-दुःख, आशा-निराशा, सफलता-असफलता से उठने वाली भावनाओं को सहजता से लेने की सीख देती हैं और बताती हैं कि अंत में चीजें जब जलकर राख बन जाती है तो अपना अस्तित्व पूर्णतः खो देती हैं उसका धुआँ भी वहाँ नहीं टिकता, उड़ कर अदृश्य हो जाता है। यही है साहित्य की खूबसूरती । साहित्य और मानवीय जीवन आपस में जुड़े हुए हैं या यूँ कहे कि साहित्य तथा समाज का सम्बन्ध अटूट रहा है। प्रेम, युद्ध, द्वंद और परिवर्तन जब भी समाज और मनुष्य को जैसी ज़रूरत पड़ी साहित्य ने वैसे ही खुद को प्रस्तुत किया। चाहे यूरोप का पुनर्जागरण हो या भारत का राष्ट्रीय आंदोलन, दोनों में ही साहित्य ने बदलाव को जन्म देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। साहित्य भी हमेशा एक जैसा नहीं रहता वह भी अपने देशकाल की परंपराओं, रीतिरिवाजों और मूल्यों के साथ खुद में बदलाव लाता है। और समाज को नई दिशा दिखाने के साथ उसे प्रेरित भी करता है। निम्न पंक्तियाँ इस संदर्भ में दृष्टव्य हैं-

अंधकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है.

मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।

मनुष्य स्वभाव से चिंतन और मनन करने वाला प्राणी रहा है और जो उसे समाज में दिखता है उसे वह लेखनीबद्ध कर देता है। इसीलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। साहित्य हमें समाज के उतार-चढ़ाव, सभ्यता-संस्कृति और लोकाचार से परिचित करवाता है। साहित्य अपने अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान को संभालता है और भविष्य के लिए गाइड का काम करता है। जैसे आज से कुछ सौ वर्ष पहले आम जन मानस को कबीर, तुलसीदास, रैदास और भूषण की वाणी ने चेतना दी, ठीक वैसे ही आधुनिक काल में ये भूमिका भारतेन्दु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद, निराला, प्रेमचंद्र और नागार्जुन ने निभायी। कबीर की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों और पाखंडों पर तीव्र कटाक्ष करके भारतीय संस्कृति और मानवता को विघटनकारी दुष्परिणामों से बचा लिया। ऐसे ही भूमिका भक्तिकाल के अन्य कवियों की रही। उन्होंने रीतिकाल के कवियों की तरह राजाश्रय न लेकर सामजिक संघर्ष और मानवीय मूल्यों के क्षरण को रोकने में अपनी वाणी व काव्य का प्रयोग किया।

परिणामस्वरूप उनका साहित्य आज भी देश और समाज को प्रेरणा देने का काम कर रहा है जबकि इसके विपरीत रीतिकाल और वीरगाथाकाल का साहित्य सिर्फ ऐतिहासिक अध्ययन की विषयवस्तु बनकर रह गया।

आधुनिक काल का साहित्य चाहे भारतीय हो या वैश्विक वह दासता, औद्योगिक क्रांति से उपजी विषमताओं और मानवीय एकाकीपन का साहित्य है। इस एकाकीपन, गुलामी से मुक्ति दिलाने में साहित्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जहां प्रेमचंद्र के उपन्यास और कहानियां किसानों और दलितों की आवाज बन गए।

वहीं, रविंद्र नाथ टैगोर और बंकिम चंद्र चटर्जी की लेखनी ने स्वंत्रतता आंदोलन को धार दी। उस समय रचे गए क्रांतिकारी साहित्य ने लोगों में नई ऊर्जा का संचार कर गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए प्रेरित किया। और समाज में व्याप्त सती प्रथा, बाल विवाह और देवदासी प्रथा जैसी अमानवीय कुरीतियों को

मिटाने में साहित्य का ही योगदान रहा है। वहीं, औद्योगिकीकरण से नगरों में बसने से सयुंक्त परिवारों की टूटन और उससे उपजे एकाकीपन के मनोभावों को साहित्य ने बड़ी खूबसूरती से उकेरा और उन्हें इस गहरी निराशा और संत्रास से बाहर निकाला। इस संदर्भ में कवि गोपालदास नीरज जी लिखते हैं-

जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला

मेरे स्वागत को हर इक जेब से ख़ंजर निकला,

मेरे होठों पे दुआ उस की ज़बाँ पे गाली

जिस के अंदर जो छुपा था वही बाहर निकला ।

यह कहना सही ही है कि साहित्य और समाज एक सिक्के के दो पहलू हैं। समाज अनुभवों की एक व्यापक उर्वरक भूमि है, जहाँ से साहित्य को सामग्री मिलती है।

आज के समय में आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी, साम्प्रदायिकता, ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याऐं वैश्विक समुदाय के सामने मुहबाएं खड़ी हैं। और असंवेदनशीलता और मूल्यों का क्षरण हो रहा है तब साहित्यकार और साहित्य की ज़िम्मेदारी कहीं ज्यादा बढ़ जाती है। वे अपने कर्म से तटस्थ नहीं रह सकते। समय की यही मांग है कि आज के मुताबिक साहित्य लिखा जाए जिससे समाज में बढ़ रहे तनाव और वैमनस्य को कम किया जा सके। साथ ही पूरे दिन सोशल मीडिया में रहने वाली यह पीढ़ी जो आत्ममुगध्ता, हिंसा, बर्बरता की तरफ बढ़ रही है, उसको सार्थक व प्रेरित करने वाले साहित्य के जरिये सोशल भी बनाया जा सके। उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के चलते आज ऐसा साहित्य रचा जा रहा है जो इंसानों की दबी हुई कुंठाओं और हिंसक प्रवृत्तियों को उभारने के साथ-साथ उनकी भाषा को भी रुग्ण बना रहा है। ऐसी भाषा को आज के गीतों और फिल्मी संवादों में धड़ल्ले से प्रयोग किया जा रहा है। सेंसरशिप की कमी के चलते ओटीटी प्लेटफॉर्म्स में ऐसी भाषा और संवादों का इस्तेमाल खुलेआम किया जा रहा है जो सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हैं। आज लेखक और साहित्यकार पूरी तरह से व्यावसायिक होते जा रहे हैं या यूँ कहे कि अर्थ ने उसे पूरी तरह लपेट लिया है। जिसका नुकसान हमारे समाज और संस्कृति को रहा है। क्योंकि साहित्यकारों ने लोकमंगल पर अर्थ को प्रमुखता दे दी है। साहित्यकारों को चुनौती देते हुए पंडित बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' लिखते हैं-

कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ,

जिससे उथल-पुथल मच जाए ।

समय के साथ साहित्य का दायरा विस्तृत हुआ है अब साहित्यकार की जिम्मेदारी भी पहले से कहीं बढ़ गयी है। तकनीकी के दौर में आज मनुष्य नित नई कल्पनाओं को साकार रूप दे रहा है और खूब भौतिक तरक्की भी कर रहा है पर सुकून उसका छिन सा गया है; सबके साथ रहते हुए भी वह खुद को अकेला पाता है। उसे जरूरत है अच्छे साहित्य के खुराक की जो उसकी मानसिक थकान को मिटा सके। उसे नयी दिशा दे सके और जो जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझने में मदद करे। आज का साहित्य समाज में आशा की किरण जगाने में असमर्थ-सा हो गया है जो निश्चित रूप से चिंता का विषय है। भले ही सोशल मीडिया ने साहित्य की पहुँच को आसान बनाया है पर साहित्य में रुचि लोगों की घट रही है। जरूरत इस बात की है साहित्यकार समय के मुताबिक खुद को बदलें और ‘फार्मूलेबाजी’, व्यक्तिगत कुंठा एवं विचारधाराओं से आगे बढ़कर सामाजिक और वैश्विक समस्याओं पर लेखनी चलाएँ। स्वस्थ और समृद्ध साहित्य ही समाज को सही दिशा दिखा सकता है। या कह सकते हैं कि अब साहित्य के कंधों पर अब जिम्मेदारी पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गयी है। इतिहास साक्षी रहा है कि जब भी जरूरत पड़ी साहित्य ने अपने दायित्वों को बखूबी निभाया है और उम्मीद है आगे भी यह प्रक्रिया चलती रहेगी।



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