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बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो

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  15-Feb-2024 | आयुष्मान



बचपन को याद करता हूँ तो कुछ धुँधली और कुछ बेहद स्पष्ट रेखाएँ उभरकर सामने आती हैं। स्मृतियों का ये धुँधलापन, लोगों की बताई बातों के आधार पर है और ये स्पष्टता ख़ुद को बार-बार याद करने के चलते आई है। कितनी ही बातों का गिल्ट रह गया है। अपनी शरारतों के सिवा ख़ुद की कोई तस्वीर बना ही नहीं पाता हूँ।

लोगों को बचपन के नॉस्टैलजिया के बारे में बात करते सुनता हूँ कि वो कौन-कौन से कार्टून देखते थे। चंपक, नंदन जैसी मैग्जीन पढ़ते थे। मैंने ये सब किया ही नहीं। और जब ये सब नहीं कर रहा था तो क्या किया, याद भी नहीं आता है।

बच्चों को लेकर ये देश कितना सम्वेदनशील हो पाया है? बाल मनोविज्ञान की समझ कितनी विकसित हो पाई है? फिर चाहे शिक्षक हों या पैरेंट्स समस्या तो वहीं की वहीं है। बच्चों को उनका सहृदय होकर कोई नहीं समझ पा रहा है। इस देश की एक बड़ी समस्या जिस पर लोग बात ही नहीं करते हैं, पैरेंटिंग की समस्या है। युवाओं का देश का राग अलापने वाले हम बचपन को लेकर कितने क्रूर हैं।

बचपन की स्मृतियाँ जीवन की दिशा को गति देती हैं। बचपन अगर त्रासद रहा है तो उसकी टीस जीवन भर रहती है। बचपन में हम कच्चे घड़े होते हैं। मनोवैज्ञानिक लगातार डिप्रेशन की खोज करने के लिए बचपन के ट्रामा की ओर मुड़ते हैं। हम बच्चों के आगे कुछ भी बोलते हैं। उनके साथ किसी भी तरह का व्यवहार कर देते हैं। वह उन्हें चेतन और अवचेतन स्तर पर प्रभावित करता है। बचपन में असुरक्षा की भावना लेकर बड़ा हुआ बच्चा जीवन भर इस असुरक्षाबोध से ग्रसित रहता है।

घर में किसी चीज़ की ज़िद करने पर पिटने की याद आती है। गाँव में कोई भी पीट देता था। स्कूल में नोट्स नहीं बने या नंबर कम आए तो मास्टर डंडा उठाकर पीट देंगे। जैसे पीट देने से याद हो जाएगा। अपने आत्मकथात्मक संस्मरण में हरिशंकर परसाई लिखते हैं - "सोचता हूँ, हम सुसंस्कृत होने का गर्व करनेवाले लोग बच्चों के प्रति कितने क्रूर हैं। बहुत निर्दयी हैं—स्कूल में भी और घर में भी। हमारे घरों में देखिए। बच्चे के हर प्रश्न का, हर समस्या का, हर छोटी हरकत का एक ही इलाज है—तमाचा जड़ दो, कान खींच दो, घूँसा मार दो। बच्चा कुछ माँग रहा है, उसकी कुछ समस्या है, वह ज़िद कर रहा है, वह पढने में लापरवाही कर रहा है, उसके हाथ से कोई चीज़ गिर गई—तो एक ही हल है कि उसे पीट दो। बच्चे को समझेंगे नहीं, उसे समझाएँगे नहीं। समस्या कुल यह है कि वह या तो बोल रहा है या रो रहा है। कुल सवाल उसे चुप कराके उससे बरी हो जाने का है। एक-दो तमाचे जड़ देने से यह काम हो जाता है। रोते हुए बच्चे को धमकाते हैं—‘अरे चुप हो! चोप्प!’ और चाँटा जड़ दिया। चाँटा तो रुलाने के लिए होता है, रोना रोकने के लिए नहीं। मगर वह बच्चा चुप तो डर के कारण हो जाता है, पर रोता और ज़्यादा है। वह बुरी तरह सिसकता है। माँ-बाप को सिसकने पर कोई एतराज़ नहीं।"

सड़क पर भीख माँगते बच्चों को देखकर लगता है कि हम किस बात पर गर्व करते फिरते हैं। कितने ही ढाबों पर छोटे बच्चे काम करने को मजबूर हैं। इस क्रम में राजेश जोशी की कविता, 'बच्चे काम पर जा रहे हैं' महत्वपूर्ण है। जिन बच्चों की खेलने की उम्र है, नादानियाँ करने की उम्र है वो काम कर रहे हैं। राजेश जी लिखते हैं - हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह /भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना/लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह/काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे? चंद्रकांत देवताले की कविता 'थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे' और स्पष्ट और केंद्रित होकर इस बात को कहती है। सारे बच्चे मजदूरी नहीं कर रहे हैं, कुछ चाँदी के चम्मच के साथ भी पैदा होते हैं। तो क्लास डिफरेंस को ध्यान में रखते हुए इस कविता को देखा जाना चाहिए। ये बात करते हुए नरेश सक्सेना की कविता 'अच्छे बच्चे' को नहीं भूलना चाहिए। नरेश जी लिखते हैं - कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं/वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं माँगते/मिठाई नहीं माँगते ज़िद नहीं करते/और मचलते तो हैं ही नहीं।

हमारे समानता के सारे दावे धरे के धरे रह जाते हैं जब एक बच्चा स्कूल जाता है और दूसरा कहीं मजदूरी करने पर मजबूर होता है। आजादी का अमृत महोत्सव बनाने वाले हम सब लोगों को शर्म से डूब जाना चाहिए। कायदे से इन बच्चों को हमसे पूछना चाहिए - जिन्हें है नाज़ हिंद पर कहाँ हैं?

इब्न-ए-इंशा अपनी नज़्म 'ये बच्चा किस का बच्चा है' में लिखते हैं -

इस भूक के दुख की दुनिया में
ये कैसा सुख का सपना है
वो किस धरती के टुकड़े हैं
ये किस दुनिया का हिस्सा है
हम जिस आदम के बेटे हैं
ये उस आदम का बेटा है

निर्मल वर्मा का एक उपन्यास है - एक चिथड़ा सुख। याद करिए उसमें भट्ठी के पास बैठे तीन बच्चों को। जो रेस्तरां में एक मेज के खाली होते ही उस पर झपट पड़े कि बचा हुआ जूठन जिसमें कुछ हड्डियों के टुकड़े और बचा-खुचा चावल था, खा सकें। बचपन का एक दृश्य तो इस तरह भी सामने उभरता है।

विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' में वो कौन-सा बच्चा है जो बीड़ी पी रहा है? ये लड़का हमारे आसपास के उन बच्चों से बिल्कुल अलग नहीं है जो अभाव में नशे की गिरफ्त में आ जाते हैं।

मैं चाहता हूँ और आने वाली पीढ़ी के लिए एक सपना भी है कि बचपन पर किसी तरह का बोझ न हो। वे उन्मुक्त रहें। धूल में लोटकर शाम को घर लौटें तो घरवाले डाँटें नहीं। बचपन से ही उन्हें किसी रेस के लिए तैयार नहीं करना है। निदा फ़ाज़ली की भी चिंता कुछ ऐसी ही होगी जब वे कहते हैं -

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे

जीवन की भागदौड़ से परेशान होकर मन करता है कि बच्चा हो जाऊं। ये शहर अंदर की मासूमियत को खत्म कर देता है। ये दुनिया जैसे ललकारती है कि देखते हैं कब तक बचा पाते हो अपना बचपन!

कोई मैच्योर नहीं होना है मुझे, न ही सब कुछ समझने जितना बड़ा। राजेश रेड्डी जिसे अपने शे'र में दर्ज कर रहे हैं-

मिरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है…



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