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लोकतंत्र में बदलाव तभी संभव है, जब जनता बदले

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  16-Apr-2024 | शालिनी बाजपेयी



युवाओं में इस बात की जिद रहती है कि वो अपने दम पर सिस्टम बदलकर रख देंगे। हर व्यक्ति जवानी के दिनों में यही संकल्प लेकर निकलता है कि उसे देश बदल देना है। बात सिविल सेवा की हो या पत्रकारिता की अथवा राजनीति की, हर नौजवान सिस्टम बदल देने के लिए उतावला रहता है। लेकिन कौन-सा सिस्टम, बदलना चाहता है, यह किसी को भी मालूम नहीं होता? यहां तक कि कुछ वर्ष पहले मणिपुर की एक महिला पुलिस ऑफिसर ने एसपी जैसे महत्वपूर्ण पद की नौक़री छोड़कर विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारियों से पहले कहा था कि मैं राजनीति में जाकर इस 'सिस्टम' को बदल देना चाहती हूं। यद्यपि कि अच्छे, ईमानदार, दृढ़ इच्छाशक्ति वाले नेक लोगों को राजनीति समेत सभी क्षेत्रों में अवश्य जाना चाहिए। अच्छे व योग्य लोग ही राजनीति समेत सभी क्षेत्रों में जगह बना पाएं, यही देश व लोकतंत्र के लिए बेहतर होगा। अच्छे व योग्य लोगों के राजनीति में जाने से राजनीति के प्रति आम जनमानस में छवि सुधरती है। लेकिन यहां, इस तरह के मामले में एक बात समझ से परे रहती है कि आखिर जो आईएएस, आईपीएस अधिकारी सिस्टम में रहकर, राज्य में बड़े-बड़े व महत्वपूर्ण पदों (सचिव, डीजीपी, कमिश्नर, जिलाधिकारी, एसएसपी...) पर पहुंकर सिस्टम नहीं बदल पाते, वो एक छोटे से क्षेत्र (विधानसभा, लोकसभा) के प्रतिनिधि मात्र बनकर कैसे पूरा सिस्टम बदल देने की सोच रखते हैं?

और दूसरी बात यह कि इस सिस्टम को बदलकर आप कौन-सा नया सिस्टम लाना चाहते/चाहती हैं? इस सिस्टम में ऐसी बुराई भी क्या है? क्या आपके पास किसी दूसरे सिस्टम का बुनियादी ढांचा है? और अगर है, तो वो कौन-सा ढांचा है? और किसी पार्टी/विचारधारा के झंडे तले रहकर आप अपने से क्या कुछ नया कर पाएंगे/पाएंगी? क्योंकि किसी पार्टी के झंडे तले खड़े होने का मतलब है, आपको तो पार्टी की लीक पर ही चलना पड़ेगा।

वो दौर चले गए जब राजनैतिक दलों के अकेले सांसदों व विधायकों का भी अपना एक वज़ूद हुआ करता था। वो असहमति होने पर पार्टी आलाकमान तक की आलोचना करने से नहीं हिचकते थे। प्रसंगवश एक छोटी सी घटना का जिक्र करते हैं। 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद अक्साई चिन वाला भारतीय हिस्सा चीन के कब्ज़े में चला गया। इसके बाद संसद में नेहरू की काफी आलोचना हुई। नेहरू ने दिलासा देते हुए कहा, "अक्साई चिन में तिनके के बराबर भी घास तक नहीं उगती, वो बंजर इलाका है।" नेहरू ने इतना कहा भर था कि खुद उन्हीं की पार्टी के एक सांसद गुस्से में खड़े हुए और अपने गंजे सिर की ओर इशारा करते हुये नेहरू को झिड़कते हुए बोले, "यहां भी कुछ नहीं उगता, तो क्या मैं इसे कटवा दूं या फिर किसी और को दे दूं।" वो सांसद कोई और नहीं, महावीर त्यागी जी थे। महावीर त्यागी अंग्रेज़ी फौज में अधिकारी थे। किंतु जलियांवाला हत्याकांड से व्यथित होकर उन्होंने सेना की नौकरी छोड़ दी थी। वो स्वतंत्रता संग्राम में महात्मा गांधी से जुड़ गये और इसके लिए 11 बार जेल भी गये।

रोचक बात यह है कि इतने स्पष्ट व खरे आलोचक होने के बावज़ूद नेहरू ने उन्हें अपने कैबिनेट में 'मिनिस्टर ऑफ रेवेन्यू एंड एक्सपेंडीचर' बनाया। आज हर सरकार कालाधन वापस लाने के लिए जो वॉलंटरी डिसक्लोजर स्कीम लेकर आती है, वो स्कीम पहली बार देश में महावीर त्यागी ही लेकर आए थे।

बाद में त्यागी 'पांचवे फाइनेंस कमीशन के अध्यक्ष' भी बनाये गये। वित्त और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में उन्होंने कई सुधार किए। आखिरी समय तक वो राजनीतिक व्यवस्थाओं में सुधार के लिए बयान जारी करते रहे। यही नहीं, उन्होंने न केवल जयप्रकाश नारायण के आंदोलन पर सवाल उठाए, बल्कि इंदिरा गांधी द्वारा थोपी गई इमरजेंसी की भी जमकर आलोचना की। आज शायद किसी भी राजनीतिक दल में ऐसे नेता नहीं हैं, जो पार्टी के निर्णयों से असहमत होने पर आलोचना कर सकें।

वो अलग दौर था, जब हर नेता की अपनी पहचान होती थी। उनमें आत्मविश्वास होता था, और पार्टी के किसी निर्णय से मतभेद होने पर इस्तीफा देने में नहीं हिचकते थे। लेकिन आज के समय में, जब एक टिकट पाने मात्र के लिए कतारें लगी होती हैं, जोड़-तोड़ होते हैं, जब एक सांसद या विधायक की कीमत पार्टी के लिए कोई वज़ूद नहीं रखती, आपने पार्टी लाइन से हटकर आवाज उठाई नहीं कि अगले दिन पार्टी आपको बाहर का रास्ता दिखा देगी। आपकी जगह भरने को सैकड़ों लाइन में लगे होते हैं।

ऐसे में आप किसी भी क्षेत्र में एक नौकरी करके अथवा किसी पार्टी की नाव पर सवार होकर कैसे 'पूरे सिस्टम को' बदल लेने की सोच रखते हैं? इसी तरह थोड़े समय पहले ही बिहार के डीजीपी भी नौकरी छोड़कर चुनाव लड़ने जा रहे थे। लेकिन हुआ क्या? टिकट तक नहीं मिला!

हां, अगर सिस्टम बदलने से आपका आशय भ्रष्टाचार दूर करना है, तो फिर ऐसा तो तभी संभव होगा, जब हर व्यक्ति खुद में ईमानदार हो जाए। कोई एक व्यक्ति राजनीति में जाकर सबको ईमानदार कैसे बना सकता है? वो तो महात्मा गांधी व बुद्ध भी नहीं कर पाये। अन्ना हजारे भी तो एक समय सिस्टम बदल रहे थे! 'लोकपाल' का गठन कराके! और उस समय जनता के दबाव में आकर आनन-फानन में लोकपाल का गठन भी हुआ।

लेकिन हुआ क्या? लोग तो सभी वही के वही हैं। नागरिक तो सभी वही लोग हैं। भ्रष्टाचार भी तो जस का तस ही है। बस आपने न्यायपालिका के समानांतर एक और नई संस्था बिठा दी। सीधे कहें तो, इसकी टोपी उसके सिर रख दी। ये किसी समस्या का समाधान थोड़ी है। यहां तक कि अन्ना आंदोलन में केजरीवाल, किरण बेदी, मनीष सिसोदिया जैसी हस्तियां आज बड़े-बड़े पदों पर आसीन हैं। लेकिन वो सब आज क्या कर रही हैं? किरण बेदी राज्यपाल बन गईं, केजरीवाल के हिस्से दिल्ली आई, सिसोदिया भी दिल्ली सरकार में बड़े पद पर हैं। लेकिन ये सब आज क्या कर रहे हैं? कितने लोगों ने सिस्टम में क्या अनोखा बदलाव कर दिया? सिस्टम कितना बदला?

सिस्टम का न बदलना स्वभाविक भी है। क्योंकि सिस्टम बनता है नागरिकों से और जब तक नागरिक ही नहीं बदलेंगे, सिस्टम नहीं बदलने वाला। और वैसे भी, अगर नागरिक ही ईमानदार हो जाएं, तो फिर एक खूबसूरत राष्ट्र के निर्माण के लिए न्यायपालिका, जांच एजेंसियां, मीडिया, पुलिस, विधायिका जैसी 'वर्तमान संस्थाएं व प्रशासनिक व्यवस्थाएं' ही बिल्कुल पर्याप्त हैं। और अगर नागरिक ही लचर हों, तो एक संस्था के ऊपर दूसरी संस्था बैठा देना कोई समाधान नहीं है। यह सिर्फ़ जटिलता को बढ़ाना और जनता के टैक्स के पैसों बरबादी मात्र है। क्योंकि भ्रष्टाचार करने के लिए बाहर से लोग नहीं आते हैं। वो देश के नागरिक ही तो होते हैं। और संस्थाओं के अधिकारी भी तो पीढ़ियों ग़रीबी झेले हुए, भीतर से दरिद्र, भ्रष्ट, आत्मिक रूप से मृत भीड़ से ही निकले होते हैं। जनता के मनोविज्ञान के अनुसार ही उनका भी मनोविज्ञान होता है।

जहां तक बदलाव की बात है तो, सच तो यह है कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, राज्यपाल, मुख्यमंत्री जैसी बड़ी संस्थाएं ही अकेले एक प्रयास में बड़े स्तर पर कुछ बदलाव ला सकती हैं। बाकी तो बस उन इकाइयों के एक अंग मात्र होते हैं।

किंतु इन सबमें सबसे ताक़तवर होती है, 'जनता'। क्योंकि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सब लोग जनता द्वारा ही पदासीन होते हैं। सबकी शक्ति का स्रोत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जनता ही होती है। सारे/ज़्यादातर नियम, कानून, संविधान संशोधन जनता की भावनाओं, समस्याओं व चेतनाओं को ही ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। लेकिन जनता न तो अपने कर्तव्यों को लेकर ही सजग, सचेत व नैतिक है और न ही अपने अधिकारों को लेकर ही। जनता थोड़े-थोड़े से क्षणिक स्वार्थों को लेकर ही, लॉलीपॉप देखते ही, लट्टू हो जाती है। भले ही वो क्षणिक लॉलीपॉप जनता के लिए धीमा मीठा ज़हर (स्वीट स्लो प्वॉइजन) ही हो।

यही नहीं, ये जो नेता माइक लेकर कुछ भी अनाप-शनाप बोल देते हैं, वो यूं ही नहीं बोलते हैं। वो जनता की नस टटोलकर बोलते हैं। इसलिए अकेले वो बुरे नहीं हैं। बल्कि गलत या तर्कहीन बातों व कुतर्कों पर उछलने वाली, हूटिंग करने वाली, तालियों की बौछार करने वाली, समर्थन करने वाली जनता गलत है।

जिस दिन जनता नेक, ईमानपूर्ण, नैतिक, सभ्य व सुशिक्षित हो जाएगी, उस दिन नेतागण भी सोच-समझकर ही बोलने लगेंगे। और अगर जनता ही सजग और नैतिक नहीं होगी, जनता ही संकीर्ण व क्षुद्र स्वार्थों में लिपटी रहेगी और किसी को भी पदासीन करा देगी, तो फिर कहीं लिखकर रख लीजिए, कुछ सुधार होने वाला नहीं है। फिर कितने भी अच्छे अधिकारी नौकरी छोड़कर, राजनीति में चले जाएं।

हां, इतना ज़रूर है कि अच्छे लोगों की राजनीति में बहुत ज़रूरत है। बेशक एक नेक व्यक्ति राजनीति में जाकर पूरे सिस्टम को अकेले नहीं बदल सकता। लेकिन एक ईमानदार, मानवीय गुणों से भरपूर, सुसभ्य, सुशिक्षित व नैतिक व्यक्ति राजनीति में जाएगा; महत्वपूर्ण पदों व नौकरियों में जाएगा, उद्यम में सफलता हासिल करेगा, तो वह छोटे से क्षेत्र को ही सही, उसको ज़रूर बेहतर बना सकता है, जो ढेरों अन्य लोगों के लिए प्रेरणा बन सकता है।



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