चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को शामिल करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं को रद्द कर दिया, जिन्हें वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया था। वर्ष 2020 में दायर की गई इन याचिकाओं में इन शब्दों की वैधता पर प्रश्न उठाए गए थे। सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के अनुरूप इन परिवर्तनों को बनाए रखा, जिसमें 'अखंडता' शब्द भी शामिल था।
सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ:
- संविधान का विकासशील स्वरूप:
- 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को जोड़ने से प्रस्तावना के मूल सार या अपनाने की तिथि ( 26 नवंबर, 1949 ) में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
- अनुच्छेद 368 संसद को संविधान, जिसमें इसकी प्रस्तावना भी शामिल है, को संशोधित करने की शक्ति प्रदान करता है।
- धर्मनिरपेक्षता:
- राज्य तटस्थता बनाए रखता है, न तो किसी धर्म का पक्ष लेता है और न ही उसे दंडित करता है, जबकि विश्वास, व्यवहार और पेशे की स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
- यह सिद्धांत अनुच्छेद 14, 15, 16 तथा अनुच्छेद 25, 26, 29 और 30 में निहित है।
- समाजवाद:
- अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत निजी व्यवसाय और व्यापार के अधिकार की रक्षा करते हुए आर्थिक और सामाजिक कल्याण के लक्ष्य को दर्शाता है।
- शर्तों का समावेश:
- न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को जोड़ने से विधायी शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगेगा और न ही संविधान की मूल संरचना शक्तिहीन होगी, जब तक कि कानून संविधान के सिद्धांतों का पालन करते हैं।
42वाँ संशोधन अधिनियम– लघु संविधान
- वर्ष 1976 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपातकाल के दौरान अधिनियमित किया गया।
- इसमें किये गए व्यापक परिवर्तनों के कारण इसे "लघु संविधान (मिनी कॉन्स्टिट्यूशन)" नाम दिया गया।
- इसका लक्ष्य केंद्र और संसद की शक्तियों को बढ़ाना और संवैधानिक संशोधनों को न्यायिक समीक्षा से मुक्त रखना है।
प्रमुख परिवर्तन प्रस्तुत किये गए:
- प्रस्तावना में संशोधन: प्रस्तावना में 'समाजवादी', 'धर्मनिरपेक्ष' और 'अखंडता' शब्द जोड़े गए, जिससे भारत एक "संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी ,पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य (SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC)" बन गया।
- भाग IV (राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत) का विस्तार: संसद को निर्देशक सिद्धांतों को लागू करने के लिये कानून बनाने का अधिकार दिया गया, जिससे समाजवादी ढाँचे को प्रबलता प्राप्त हुई।
- अनुच्छेद 368 में परिवर्तन: संशोधनों की समीक्षा करने की न्यायपालिका की शक्ति को प्रतिबंधित कर दिया गया, जिसमें कहा गया कि आगे के निर्देशक सिद्धांतों में किये गए संशोधनों पर न्यायालय में प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।
- मौलिक कर्त्तव्य अनुच्छेद 51A: भाग IV-A के अंतर्गत नागरिकों के लिये विस्तारित मौलिक कर्त्तव्य।
- आपातकालीन प्रावधानों और संघीय ढाँचे से संबंधित कानूनों को संशोधित करके राज्यों पर केंद्र की शक्ति को दृढ़ किया गया।
- न्यायिक कटौती:
- अनुच्छेद 31C में संशोधन करके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों को रद्द करने की न्यायपालिका की क्षमता को सीमित कर दिया गया।
- मौलिक अधिकारों और शक्तियों पर प्रभाव
- न्यायिक प्रतिक्रियाएँ और परिवर्तन:
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980):
- सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक समीक्षा को सीमित करने वाले तथा संसद को अनियंत्रित शक्तियाँ देने वाले प्रावधानों को निरस्त कर दिया।
- 43वाँ और 44वाँ संशोधन:
- कई प्रावधानों को उलट दिया गया, मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धांतों के बीच संतुलन बहाल किया गया।
- हालाँकि, प्रस्तावना में संशोधन बनाए रहे।
संदर्भित ऐतिहासिक निर्णय:
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य और एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ:
- धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मुख्य विशेषता के रूप में मान्यता दी गई।
- आर.सी. पौड्याल बनाम भारत संघ:
- धर्मनिरपेक्षता को सभी धर्मों के प्रति समान और बिना किसी पक्षपात के व्यवहार करने की राज्य की प्रतिबद्धता के रूप में स्वीकार किया गया।
- प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य:
- फैसला सुनाया गया कि सरकार द्वारा अपनाई गई आर्थिक नीतियाँ संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप होनी चाहिये तथा नागरिकों के प्रति जवाबदेह होनी चाहिये।
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