वो शख़्स, जो आईसीसी में भारत का हीरो बना

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  20-Sep-2024 | संजय श्रीवास्तव




हाल ही में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सचिव जय शाह दुबई स्थित इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल (ICC) के अध्यक्ष चुने गए। वह आधिकारिक तौर पर 1 दिसंबर को ग्रेग बार्कले की जगह वर्ल्ड क्रिकेट के नए बॉस होंगे। जब जय शाह या उनसे पहले दूसरे भारतीय पिछले साढ़े तीन दशकों में आईसीसी के सुप्रीमो बन चुके हैं, तब हमें देखना चाहिए कि एक जमाने में इसी आईसीसी में भारत और भारतीयों को हिकारत से देखा जाता था। उनकी आवाज सुनी नहीं जाती थी। ये तब से चलता आ रहा था, जब 1909 में इंपीरियल क्रिकेट कांफ्रेंस की नींव पड़ी तो इसके संस्थापक तीन देश थे – इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया और साउथ अफ्रीका। फिर 1965 में इस संस्था का नाम बदलकर किया गया इंटरनेशनल क्रिकेट काफ्रेंस। तब तक इस संस्था के पूर्ण सदस्यों में भारत, न्यूजीलैंड, पाकिस्तान, वेस्टइंडीज, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया शामिल हो चुके थे। साउथ अफ्रीका को उसकी रंगभेदी नीतियों के कारण आईसीसी से बाहर किया जा चुका था लेकिन रंगभेदी श्रेष्ठता अपरोक्ष तौर पर इस वर्ल्ड बॉडी में लगातार कायम थी। 1987 में जब फिर से नाम बदलकर इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल किया गया, तब तक श्वेत देशों की बादशाहत ही नहीं खत्म हो चुकी थी बल्कि उन्हें आईसीसी में ये समझ में आ चुका था कि जमाना बदल चुका है। अब वो समय गया, जब वो खुद को क्रिकेट का तारणहार, पॉवर समझा करते थे। ये काम किया था एक भारतीय शख्स ने। उसका नाम था जगमोहन डालमिया।

आज हम वर्ल्ड क्रिकेट में भारत के जिस रूतबे और ताकत को देखते हैं, वह बगैर उनके संभव ही नहीं थी। आज बेशक ये बात आसान लगे लेकिन आईसीसी जैसी इंपीरियल सोच वाली संस्था में घुसकर ना केवल आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के ताकत के मद में चूर क्रिकेट बोर्डों को ललकारना बल्कि उन्हें ये भी समझा देना कि उनका दौर अब गया। फिर उनके सामने ही उनके हाथ से इस ताकत को छीनने वाला शख्स कोई और नहीं बल्कि जगमोहन डालमिया ही था। जिसने तब जो डिप्लोमेसी खेली वो बहुत मुश्किल थी। उसने केवल अश्वेत देशों मसलन पाकिस्तान, वेस्टइंडीज को ही साथ नहीं मिलाया बल्कि काफी हद तक न्यूजीलैंड को साथ लिया, जिससे आईसीसी की बाजी पलट गई। ये वो दौर भी था जब आईसीसी ही नहीं क्रिकेट खेलने वाले किसी भी मुल्क के क्रिकेट बोर्ड के पास पैसा नहीं था। उन्होंने ना केवल आईसीसी को ताकतवर और धनवान वर्ल्ड क्रिकेट संस्था में बदला बल्कि उसके साथ साथ क्रिकेट खेलने वाले सारे मुल्कों को वो मंत्र दिया, जिससे आज वो धन के लिहाज से फटेहाल तो कतई नहीं हैं। भारतीय क्रिकेट बोर्ड के खजाने में कभी पैसा नहीं होता था। उसको अपने कामों के लिए हाथ फैलाना होता था लेकिन आज की तारीख में उसके पास शायद इतना पैसा है, जिससे ज्यादा विश्व खेलों की केवल एक ही संस्था के पास होगा, वो है फीफा यानि फुटबॉल को चलाने वाली फेडरेशन।

क्रिकेट आज 100 से ज्यादा देशों में फैल चुका था। क्रिकेट खेलने वाले पूर्ण देशों की संख्या में 12 से ज्यादा का इजाफा हो चुका है। क्रिकेट की सरहदें अमेरिका में फैल चुकी हैं। कभी कहा जाता था कि क्रिकेट भी कोई खेल है, पांच दिन के टेस्ट क्रिकेट को भला कोई क्यों देखना चाहेगा, ये खेल तो अपनी मौत खुद मर रहा है, वो खेल अपनी लोकप्रियता के लिहाज से दुनिया का दूसरा बड़ा लोकप्रिय खेल बन चुका है। वर्ष 2028 के ओलंपिक खेलों में इसके टी20 फारमेट को शामिल किया गया है। कहना चाहिए कि पिछले साढ़े तीन दशकों में क्रिकेट ने खुद के भीतर, फारमेट और मार्कटिंग में जितने बदलाव और फैलाव किए हैं, वो दुनिया के किसी भी खेल ने नहीं किया, इसी वजह से ये ना केवल फिट है बल्कि हिट है। क्रिकेट में बेशुमार पैसा है। कभी एक मैच के लिए

मुश्किल से 500 रुपए जिन खिलाड़ियों को मिलते थे, वो अब एक मैच के लिए 10-15 लाख रुपए पाते हैं, उनका एक साल का करोड़ों का करार होता है। आईपीएल जैसी लीग ने उन्हें मालामाल कर दिया है, ये सब उसी शख्स के कारण संभव हुआ, जिसे जगमोहन डालमिया के नाम से जानते हैं। डालमिया कोलकाता के बिल्डर कंस्ट्रक्शन बिजनेसमैन थे। क्रिकेट वो कभी खेले भी तो कॉलेज लेवल तक। कभी फर्स्ट क्लास क्रिकेट तक नहीं पहुंचे लेकिन उन्होंने इस खेल के लिए जो किया, वो वास्तव में सोचा नहीं जा सकता।

जय शाह के बहाने कहना चाहिए कि अब तक भारत से पांच लोग आईसीसी के बॉस बन चुके हैं लेकिन पहली बार इस कुर्सी पर किसी भारतीय का करीब तीन दशक पहले बैठना जितना मुश्किल और नामुमकिन लगता था, वो अब कतई नहीं, क्योंकि अप्रत्यक्ष तौर पर अब वर्ल्ड क्रिकेट की लगाम पीछे से भारतीय क्रिकेट बोर्ड के हाथों में होती है, क्योंकि इस संस्था को पैसे से सींचने और मालदार बनाने का काम बीसीसीआई या यों कहें कि भारतीय क्रिकेट ही एक तरह से करती रही है।

हालांकि इस कहानी लिखने में सबसे बड़ा हाथ भारतीय क्रिकेटरों का ही। शुरुआत 1983 से ही होती है। जब कपिलदेव की अगुवाई में भारतीय क्रिकेट टीम 1983 का वर्ल्ड कप खेलने गई थी। तब लोग भारतीय क्रिकेट टीम की इसलिए खिल्ली उड़ाया करते थे,क्योंकि वन-डे क्रिकेट जिसे लिमिटेड ओवर्स क्रिकेट कहा जाता है, में ढक्कन मानी जाती थी यानि कुछ करने लायक नहीं समझी जाती थी। क्रिकेट के इस फारमेट में उसका रिकॉर्ड बहुत खराब था। लिहाजा जब वह कपिल की अगुवाई में इंग्लैंड इस वर्ल्ड कप को खेलने पहुंची तो उसे कोई कुछ समझ नहीं रहा था। यहां तक कि भारत में भी क्रिकेट प्रशंसक उससे कोई ज्यादा उम्मीद नहीं कर रहे थे। लेकिन उसने वहां जो तस्वीर हर मैच के साथ बदली, उससे हर कोई हैरान रह गया। टीम ना केवल फाइनल में पहुंची बल्कि वर्ल्ड कप भी जीत लिया।

ये भारतीय क्रिकेट में बहुत बड़ा टर्निंग प्वाइंट था। इसने पूरे भारत में क्रिकेट के लिए बहुत बड़ा जोश पैदा कर दिया। हालांकि भारत में बाजारवाद की जड़ें तब तक इतनी मजबूत नहीं हुईं थीं, जितनी आज लगती हैं लेकिन जो भी भारतीय ब्रांड थे, वो भारतीय क्रिकेट के साथ खड़े होने लगे। आप सोचिए कि जब भारतीय टीम वर्ल्ड कप जीतकर भारत लौटी तो इसके हर क्रिकेटर देने के लिए एक लाख रुपए भी नहीं थे, जिसे महान गायिका लता मंगेशकर का कन्सर्ट करके जुटाया गया। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का खजाना तब खाली था।

इस जीत ने बीसीसीआई के कांफिडेंस को खजाना खाली होते हुए भी बढ़ा दिया। 1983 के पहले की भारतीय क्रिकेट और क्रिकेटरों की कहानी अभावों की ज्यादा कही जानी चाहिए। अब भारतीय क्रिकेट की अमीरी के आगे दूसरे सारे खेलों की चमक फीकी है। अब बीसीसीआई के पास एक नहीं बल्कि कई सोने की मुर्गियां हैं। अब क्रिकेटर स्टारडम, रूतबे और करोड़ों में खेलने वाली जो जिंदगी जीते हैं, वो किसी ख्वाब से कम नहीं।

अगला वर्ल्ड कप 1987 में कराने के लिए जब आईसीसी की मीटिंग 1985 में हुई तो इंग्लैंड में लगातार तीन बार से हो रहे वर्ल्ड कप पर सवाल उठे। इंग्लैंड को लगता था कि वर्ल्ड कप तो उसकी जगह कोई करा ही नहीं सकता। भारत ने इसको चुनौती दी। पहली बार आईसीसी में इंग्लैंड को कोई देश इस तरह सीधे सीधे चुनौती दे रहा था। भारत ने अगले वर्ल्ड कप को कराने के लिए अपना दावा ठोंक दिया। भारत-पाकिस्तान और वेस्टइंडीज ने मिलकर आईसीसी में इंग्लैंड पर इस तरह दबाव बनाया कि उसको मानना पड़ा कि वर्ल्ड कप के अगले संस्करण को कहीं बाहर कराया जाए। भारत ने इसके लिए अपना नाम आगे किया। पाकिस्तान को साथ में सह आयोजक बनाया। तब तक श्रीलंका आईसीसी का पूर्ण सदस्य बन चुका था। इस तरह पहली बार अगले वर्ल्ड कप का आयोजन को इंग्लैंड से छीनकर बाहर लाया गया। तब भारत और पाकिस्तान ने मिलकर 1987 का वर्ल्ड कप कराया। हालत ये थी बीसीसीआई के पास तब इस वर्ल्ड कप के आय़ोजन को कराने के लिए गारंटी मनी देने तक के पैसे नहीं थे। तब रिलायंस इंडस्ट्री ने बीसीसीआई को गारंटी मनी देने में मदद की।

वर्ल्ड कप भारत और पाकिस्तान में संयुक्त रूप से हुआ, बेशक भारत इसमें नहीं जीता लेकिन उसने दो चीजें सीख लीं कि वर्ल्ड कप से कैसे पैसा कमाया जा सकता है औऱ दूसरा ब्राडकास्टिंग राइट्स में बेशुमार पैसा है बशर्ते इस ब्राडकास्टिंग राइट्स पर बीसीसीआई खुद हक जताए, तब तक दूरदर्शन मुफ्त में ना केवल भारत के क्रिकेट मैच ही नहीं कराता था बल्कि इस मैच के ब्राडकास्ट के लिए उल्टे बीसीसीआई से हर मैच की मोटी फीस लेता था। 90 के दशक में एक अच्छी बात और ये हो रही थी कि पूरी दुनिया में उदारीकरण और मुक्त बाजार का दरवाजा खुलने लगा था। जो बडे़ ब्रांड्स अमेरिका और यूरोप से आकर भारत में दस्तक दे रहे थे, वो अच्छी तरह जानते थे कि खेलों की ताकत क्या होती है, खेलों की लोकप्रियता को ब्रांड्स कैसे भुना सकते हैं। ये कंपनियां ये काम अमेरिका और यूरोप पहले ही करके देख चुकी थीं। भारत में जब उनकी निगाह सबसे लोकप्रिय होते खेल की ओर गई तो उन्हें क्रिकेट और क्रिकेटरों में ही अपार संभावनाएं नजर आईं। बस भारत में बाजार की इस ताकत ने क्रिकेट को लपक लिया। क्रिकेट के ब्राडकास्टिंग राइट का जिम्मा कानूनी तौर पर बीसीसीआई के पास जाने और बाजार के साथ गलबहियां करने पर क्रिकेट ने भारत में वो छलांग लगाई, जो कोई सोच ही नहीं सकता था। और ये सब हुआ उस लहर पर सवार होने से जो वर्ष 1983 में वर्ल्ड कप विजेता होने के कारण देश में आई थी।

यानि समय बदल चुका था। अब अगला काम ये हुआ कि 1987 के सफल आयोजन के बाद भारत ने आईसीसी में अपनी जगह और मजबूत करनी शुरू की। अब चूंकि भारत में बाजार मजबूत हो रहा था। ग्लोबलाइजेशन के चलते भारत में तमाम वैश्विक ब्रांड दस्तक दे रहे थे तो उन्होंने क्रिकेट को प्रोमोट करना शुरू किया, उसमें पैसा लगाना शुरू किया। स्पांसरशिप लेनी शुरू की। क्रिकेट के टीवी प्रसारण में इन कंपनियों के बेशुमार एड होते थे। लिहाजा अब भारतीय क्रिकेट बोर्ड के दिन बदलने लगे। उसने इस पैसे से आईसीसी को भी सींचा। दूसरे देशों को अब भारत के साथ खेलने में ज्यादा पैसे मिलने लगे। टीवी प्रसारण से भी उन्हें भारत के साथ मैचों से ज्यादा फायदा हो रहा था। लिहाजा आईसीसी में भारत का परचम लहराने लगा।

आप सोचिए कि जब पहली बार जगमोहन डालमिया ने आईसीसी में सेंध लगाई तो श्वेत देश इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया उससे बिलबिला उठे थे। इसके बाद तो उन्होंने हर कदम पर ये जताना शुरू कर दिया कि वर्ल्ड क्रिकेट अब बगैर भारत के नहीं चल सकती। 1996 में जब भारत ने दूसरी बार वर्ल्ड कप का आयोजन भारत में कराया तो उसके बाद भारत ने आईसीसी प्रेसीडेंट पोस्ट पर दावा ठोंका। जगमोहन डालमिया 1997 में पहली भारतीय थे, जो आईसीसी के अध्यक्ष बने। वो वर्ष 2000 तक इस पर रहे। इसी जमाने में क्रिकेट का वैश्विक प्रसाऱ शुरू हुआ। आईसीसी और ज्यादा ताकतवर हुई। आईसीसी का खजाना भी खूब भऱने लगा। मतलब जगमोहन के जमाने में आईसीसी में तेज और सकारात्मक बदलाव शुरू हुआ। तकनीक की मदद लेने में भी क्रिकेट ने दूसरे खेलों की तुलना में ज्यादा बड़ी छलांग लगानी शुरू।

इसके शरद पवार (2010-2012) फिर एन। श्रीनिवासन (2014-2015) आईसीसी के पुनर्गठन के बाद इसके अध्यक्ष बने। हर भारतीय अध्यक्ष आईसीसी में ऐसी नई चीजें कर रहा था, जो वाकई प्रभावित करने वाली थीं। शशांक मनोहर (2015-2020) का आईसीसी प्रेसीडेंट के तौर पर दौर सुधारों और सदस्य देशों के बीच अधिक न्यायसंगत राजस्व वितरण का रहा। अब जय शाह पांचवें भारतीय हैं, जो वर्ल्ड क्रिकेट की इस सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठने जा रहे हैं।

उम्मीद है उनका कार्यकाल ना केवल क्रिकेट की लोकप्रियता और बढ़ाएगा बल्कि 2028 के लास एंजिल्स ओलंपिक से पहले क्रिकेट को उसमें शामिल करने संबंधी सारी औपचारिकताओं और चुनौतियों को पूरी कर पाएगा। जाहिर है कि जब कोई आईसीसी में अध्यक्ष चेयरमैन बनता है तो ये बीसीसीआई की वित्तीय शक्ति और उसकी बढ़ती ताकत को भी जाहिर करता है।

डालमिया ने जो बड़े काम किए, जिससे आने वाले टाइम में आईसीसी की प्राथमिकताएं और एजेंडा तय हुआ, वो उस समय के लिहाज से बहुत विजन वाला था। मसलन उन्होंने क्रिकेट का व्यावसायीकरण किया। वह ऐसे शख्स थे, जिन्होंने क्रिकेट की व्यावसायिक क्षमता को पहचानने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, खासकर सीमित ओवरों के फारमेट को लेकर। उन्होंने एक दिवसीय क्रिकेट की ताकत पहचानी और इसे दुनिया में फैलाना शुरू किया। भारत में भी खेल को छोटे शहरों तक वहां केंद्र बनाने तक ले गए। भारतीय क्रिकेट की राज्य इकाइयों की संरचना मजबूत की, क्योंकि राज्य इकाइयां इससे पहले ठन ठन गोपाल थीं। उनके पास पैसा नहीं था, वो फर्स्ट क्लास के मैच भी नहीं करा पा रहे थे। अपने खिलाड़ियों को पैसा देना तो दूर की बात रही। उन्होंने इसे पूरी तरह बदल दिया। अब देश के हर राज्य के क्रिकेट एसोसिएशन के पास भरपूर पैसा है। उसे बीसीसीआई से हर साल मोटी रकम मिलती है। इस रणनीति ने BCCI के राजस्व में उल्लेखनीय वृद्धि की, जिससे ये विश्व स्तर पर सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड बन गया।

डालमिया के नेतृत्व में भारत ने अन्य क्रिकेट खेलने वाले देशों के शुरुआती प्रतिरोध के बावजूद 1987 और 1996 के क्रिकेट विश्व कप की सफलतापूर्वक मेजबानी की। इन आयोजनों को सुरक्षित करने में गठबंधन बनाने और क्रिकेट राजनीति को नेविगेट करने की उनकी क्षमता गजब की थी। आईसीसी को सही मायनों में डालमिया ने दमदार बनाया। उन्होंने वर्ल्ड कप का अधिकार और उसके मुनाफे के लिए आईसीसी को ही सक्षम बॉडी बनाया। लिहाजा अब आईसीसी के इवेंट्स जहां कहीं जिन देशों में होते हैं, वो मुख्य तौर पर आईसीसी के इवेंट होते हैं। उसका वित्तीय जिम्मा आमतौर पर वही संभालता है। अलबत्ता मेजबान देश के साथ राजस्व में हिस्सेदारी करता है। वर्ल्ड कप के टीवी राइट्स पूरी तरह उसके होते हैं। ये सब डालमिया के जमाने में किया। किसी को नहीं मालूम था कि टीवी के जरिए इतना बड़ा खजाना हाथ आ सकता है। उनके कार्यकाल के अंत तक, ICC का कोष 16,000 पाउंड से बढ़कर 15 मिलियन डॉलर से अधिक हो गया।

डालमिया के दौर में नए क्रिकेट खेलने वाले देश आईसीसी में तेजी से शामिल हुए। इससे क्रिकेट को वर्ल्ड खेल की पहचान दी। हालांकि एक जमाने में ब्रिटिश प्रेस डालमिया का बहुत विरोध करता था लेकिन बाद में उसने उनकी तारीफ भी की। कहना चाहिए कि उन्होंने आईसीसी के संचालन को पेशेवर बनाया। उभऱते हुए बाजारों तक क्रिकेट को ले गए। एक भारतीय प्रशासक के रूप में, डालमिया को कई बार BCCI और भारतीय सरकार के बीच जटिल राजनीति से निपटना पड़ा।

सोचिए कभी भारतीय क्रिकेट के प्रशासक चुपचाप जाकर इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल की बैठकों में हिस्सा लेते थे। अपना मुंह बंद किए होते थे। अंग्रेजों की बड़ी बड़ी बातें सुनकर वापस आ जाते थे। तब इंग्लैंड और आस्ट्रेलिया के खिलाड़ी भारतीय सुविधाओं का मजाक उड़ाते नजर आते थे। आईसीसी पैनल के अंग्रेज अंपायर औऱ रेफरियों का व्यवहार एशियाई टीमों के साथ भेदभावपूर्ण होता था। बीसीसीआई शायद ही अपनी किसी जाएज बात के लिए भी अड़ पाता था।

डालमिया ने भारत के साथ एशियाई देशों को साथ लेते हुए वर्ल्ड क्रिकेट का नक्शा और धुरी दोनों बदली। कहने का मतलब ये है कि डालमिया का भारतीय क्रिकेट को योगदान इतना बड़ा है कि उसकी तुलना करना न तो उचित है न उपयुक्त। जितनी संभावनाओं और सुनहरे स्तरों के आयाम डालमिया ने खोले वो वाकई किसी विजन वाले शख्स से संभव हो सकते थे। इस लिहाज से डालमिया का अपना एक बड़ा कद है। किसी भी भारतीय क्रिकेट प्रशासक से कहीं ज्यादा बड़ा। डालमिया ने क्रिकेट में उन ताकतों को मंच दिया था, जो हाशिए पर थे और कमजोर थे।

तो अब देखने वाली बात होगी कि जय शाह आईसीसी चेयरमैन के तौर पर कौन सी बड़ी लकीर खींचते हैं। और जगमोहन डालमिया के बारे में फिर कहना चाहिए कि उन्होंने तो आईसीसी का वो दरवाजा खोला और उसमें घुसे, जो एक जमाने में असंभव लगता था।



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