संघर्ष जीवन का अभिन्न हिस्सा होते हैं

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  12-Jun-2024 | शालिनी बाजपेयी




आज से दस हजार साल बाद भी (अगर मानव सभ्यता शेष रही) इस धरती पर उतनी ही समस्याएं रहेंगी, जितनी आज हैं। मनुष्य के जीवन में उतने ही दुख रहेंगे, जितने आज हैं। उस समय भी मनुष्य मानवीय प्रवृत्तियों से जूझता रहेगा। हिंसा, हत्या, व्यभिचार, अत्याचार, शोषण समेत तमाम अपराध तब भी रहेंगे। और आज से दस हजार साल पहले भी ये सारी समस्याएं, तकलीफें, दुख, तनाव, उपद्रव व्याप्त थे।

बुद्ध, महावीर, कृष्ण, सुकरात, गैलीलियो, रजनीश, वेदों, ग्रंथों... इत्यादि के आने के पूर्व भी ये सारी चीजें व्याप्त थीं। और इन सबके आने के हजारों वर्षों बाद भी ये चीजें व्याप्त हैं। ये चीज़ें रुकने वाली नहीं हैं। इसकी मूल वज़ह यह है कि आंतरिक परिवर्तन स्वत: घटित होने वाली प्रक्रिया है। यह नितांत निजी प्रक्रिया है। किसी को सुनकर या पढ़कर या देखकर आपकी चेतना विकसित हो ही नहीं सकती। आपके जीवन के किसी आयाम में कोई भी क्रांति तब तक घटित नहीं हो सकती, जब तक आपका दिमाग़ खुद उसका ग्राही न हो। उस वाइब्रेशन को अवशोषित करने के लिए निर्मित न हो। कोई कृष्ण आपका उद्धार नहीं कर सकता, जब तक आपके ख़ुद के भीतर कोई अर्जुन न बैठा हो; आपके दिमाग़ को अस्तित्व ने उस ढंग से निर्मित न किया हो। इसी तरह से आपके जीवन से दुख तब तक विदा नहीं हो सकता, जब तक आपका दिमाग़ खुद उन्हें झटककर फेंक न दे। इसका बाहरी दुनिया से कोई संबंध नहीं है।

बुद्ध या मीरा जिस युग/कालखंड में आए, वो घोर रूढ़िवादी दौर था। फिर भी वो सब हर वो लकीर लांघ गये, जो उनके रास्ते में बाधा बनकर आई। बुद्ध से पहले अनगिनत लोगों ने वृद्ध, बीमार, भिखारी व शवयात्राएं देखी थीं। कोई बुद्ध नहीं हुआ। सिवाय उस सिद्धार्थ के। महावीर की तरह कोई नग्न होकर नहीं चला। जबकि अनगिनत लोगों के पास तो खोने को भी कुछ नहीं था, फिर भी वो भीख की कटोरी तक त्याग नहीं पाए। सिद्धार्थ और महावीर जैसों के पास खोने को बहुत कुछ था, फिर भी वो नवयुवक सब त्याग गये। गांधी के पास एक शानदार करियर था। फिर भी वो बैरिस्टरी का करियर छोड़कर संग्राम में उतर गये। हिटलर एक बेहतरीन पेंटर था। अच्छा शासक भी था। फिर भी वो क्रूरता की हद से गुज़र गया।

कृष्ण भी जिस दौर में आए, वो आध्यात्मिक रूप से बेहद पिछड़ा हुआ था। फिर भी उन्होंने अद्भुत ज्ञानवर्षा की। कृष्ण जिस ऊंचाई पर पहुंचकर बोल गये, आज पांच हजार साल बाद भी मानव चेतना उतनी विकसित नहीं हो पाई कि लोग उसका 5% तक ठीक से समझ भी पाएं। और आने वाले 50 हजार सालों बाद भी मनुष्य उस स्तर तक नहीं पहुंच पाएगा। लोग ऐसे ही रहेंगे, ऐसे ही जीयेंगे, ऐसे ही मरेंगे।

इसलिए कोई भी कालखंड या कोई समाज आपकी राह में रोड़ा नहीं बन सकता। सब बहाने हैं। सिवाय आपके ख़ुद के दिमाग़ के। और कोई आपको जगा भी नहीं सकता। दूसरा कोई कृष्ण बनकर आपको बता मात्र सकता है। लेकिन आप जागेंगे भी तभी, जब खुद आपके भीतर भी कोई अर्जुन होगा।

बुद्ध के प्रति मेरे मन में अपार श्रद्धा है। लेकिन बुद्ध ने जीवन को क्या ही दे दिया! इस जीवन को दिया ही क्या जा सकता है। जीवन तो स्वत: चलायमान प्रक्रिया है। बुद्ध भी केवल अपने भीतर के अंधेरे को ही तो मिटा पाए‌। अपनी प्यास ही तो बुझा पाए। दूसरों के लिए सूखे शब्द मात्र छोड़ पाए। जैसे कोई सूखा बीज। इससे ज़्यादा विडंबना क्या होगी कि मानव सभ्यता कथित रूप से इतनी विकसित हो गई लेकिन आज तक मानव जीवन से दुख विदा नहीं कर पाई। हमने हवाई जहाज बना लिए, मेट्रो बना लिए, कंक्रीट के ऊंचे-ऊंचे जंगल बना लिए, लग्जरियस कारें व चारों ओर घूमने वाली कुर्सियां बना लीं। लेकिन दुख तो आज भी मानव जीवन में उतने ही है, जितने 10 हजार साल पहले थे। बस अंतर यह है कि पहले मनुष्य गुफाओं में पेट भरने की चिंता में दुःखी था और आज मनुष्य ऊंची-ऊंची इमारतों में दुःखी है।

वास्तव में हर कोई ख़ुद को ही जगा सकता है, वो भी तब, जब अस्तित्व ने आपके भीतर प्यास भरी हो। अन्यथा मुझे एक तरफ सत्य की प्यास में तड़पकर दशकों तपस्या करके तृप्त हुए बुद्ध और दूसरी तरफ चेतना के स्तर पर निर्बोध पक्षी (जिसने कोई तपस्या नहीं की) में कोई खास अंतर नहीं दिखता। क्यों दोनों कुंठा-सुन्न हैं। मुझे एक गिलहरी तक में बुद्धशांति दिखती है। बुद्ध ने दशकों तपस्या करके अपने अंतर्मन की वो गांठें (कुंठाएं) खोलीं, जो सैकड़ों वर्षों की मानव जीवन की यात्रा के तहत उन्हें अनुवांशिक रूप से मिली थीं। पक्षियों में गांठें/कुंठाएं होती ही नहीं। इसलिए उन्हें खोलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। इसलिए मुझे आनंद के तल पर दोनों एक समान दिखते हैं।

बुद्ध या कृष्ण के सूखे शब्द रूपी बीज भी आपके जीवन में तभी अंकुरित होंगे, जब आपके मस्तिष्क और आत्मा की चेतना की भूमि उर्वरा होगी। अन्यथा आप पूरे धर्म, दर्शन, साहित्य, विज्ञान, तकनीकी...सब एक तरफ से पढ़ डालिए। दुनिया भर के दार्शनिकों को रट डालिए। वो आपके लिए सूखे/मृत शब्दों के अलावा कुछ नहीं होंगे। जबकि अगर आपकी दिमाग़ी बौद्धिकता उर्वरा है, तो आप किसी को भी नहीं पढ़ेंगे, तो भी आपके भीतर ज्ञान के वटवृक्ष तैयार हो ही जाएंगे।

इसीलिए यहां भी बात नियतिवाद की गोद में जाकर गिर जाती है कि, अगर सब कुछ दिमाग़ी रचना, जीवन में घटित घटनाओं व उनके प्रति आपकी प्रतिक्रियाओं पर ही निर्भर है, फिर तो आपके जीवन में कृष्णत्व भी तभी उतरेगा, जब आप उसके लिए बने होंगे। जब अस्तित्व ने उसके लिए आपका चुनाव किया होगा। वैसे भी आप ग़ौर से देखेंगे तो पाएंगे कि पूरा जीवन ही संयोगिक है। यहां चयनात्मक कुछ भी नहीं है। आपके पास चयन का विकल्प होता ही नहीं है। इसलिए यह मायने नहीं रखता कि आप किस दौर में पैदा हुए और कितने मान्यता प्राप्त महापुरुष धरती पर आदर्श के रूप में आपका मार्गदर्शन करने के लिए आपके सामने पड़े हैं। विश्वास न हो तो आप देख लीजिए। बुद्ध के आने के पूर्व भी हत्याएं और हिंसाएं होती थीं और बुद्ध के आने के बाद भी। यहां तक कहा जाता है कि खुद बौद्ध भिक्षुओं के बीच भी तमाम तथाकथित अपराध होते हैं। वो सब भी बुद्ध की राख मात्र ढो रहे हैं। बुद्ध से उनका उतना ही लेना-देना है, जितना मंदिर के पंडों का भगवान से, जितना पादरियों का ईशा से और जितना मौलवियों का अल्लाह से। इससे ज़्यादा नहीं।

इसलिए कोई किसी का उद्धार नहीं कर सकता। सिवाय नियति के। हां, नियति भी करवाएगी तो वह भी किसी के माध्यम से ही करवाएगी। नियति ने तुम्हारे जीवन में जिसके माध्यम से जो रचा है, वही होगा। नियति चाहेगी तो तुमसे इस धरती पर शासन करवा लेगी, नियती चुनेगी तो आप कृष्णत्व को उपलब्ध हो जाएंगे। लेकिन अंततः होगा वही, जो नियति ने बुना होगा।

हां, मानव जीवन की विकास यात्रा में मोटे तौर पर आज तक केवल दो ही चीज़ें बेहतर हुईं, जिन्होंने मानव जीवन को बदला। एक विज्ञान ने, जिसने मानव जीवन को सुलभ बनाया और दूसरे उन विचारकों ने, जिन्होंने विचारों की खोज कर मार्गदर्शन के लिए छोड़े। ताकि, जिन्हें प्यास जगे, उन्हें समझने में थोड़ी सहूलियत हो। एक सीढ़ी मिल जाए। अन्यथा, मनुष्य पशुओं की ही एक प्रजाति है। और वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में झलकती भी है। हम कपड़ों से लैस, स्मार्ट व स्टाइलिश पशु हो गये हैं। हजारों वर्षों की यात्रा में इससे ज़्यादा हम कुछ नहीं हो पाए हैं।



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