यात्राएं, जिन्होंने भारत को बदला

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  25-Sep-2024 | संजय श्रीवास्तव




हजारों साल पहले जब ये दुनिया ऐसी नहीं थी, तब कुछ खानाबदोश कबीले थे। घुमक्कड़ कबीले। आज यहां, कल वहां। ठहरना उनकी प्रवृति नहीं थी। पैरों में थे उनके पंख। वो जमीं के परिंदे थे। कभी पहाड़ों का सीना चीरते हुए आगे बढ़ते हुए तो कभी नदियों की तेज धाराओं से होड़ लेते, समुद्र की विशालता भी उनकी हिम्मत को डिगा नहीं पाती। उनकी जिंदगी के मायने यात्राओं में बसे थे। न घर था और न कोई ठौर। रोज नया मुकाम, नये संघर्ष। साथ ही सीखना जीवन के सलीकों को। कबीले बड़े होते गये। अलग अलग टुकड़ों में बंटे। अलग अलग दिशाओं में फैलेे। कहते हैं कि दुनिया इन्होंने ही बसाई। जिस कोने में गये, वहां की मिट्टी-पानी में रमकर नई संस्कृति, भाषा और परंपराओं को जन्म दिया। जब ठहरे तो सभ्यताओं का उदय होने लगा। हजारों साल पहले भारत भी कहां एक देश था। हमारी ये धरती न जाने कितने देशों और गणराज्यों में बंटी थी। कहते हैं ईसा से पहले भी हमारे यहां ज्ञान था, वैभव की छटा थी, सोने की चिडियों का बसेरा था। मंत्रों के आह्वान फिजाओं में घुलते थे।

जब यूरोप में पुनर्जागरण की शुरुआत हो रही थी तो भी भारत खास आकर्षण था। यूरोप के जहाजियों और यात्रियों के लिए स्वप्न बिंदु थी भारत यात्रा। वह देश जहां स्वर्ण आभूषण दमकते थे, मसाले थे, बहुमूल्य पत्थर के भंडार थे और थीं विशाल अट्टालिकाएं। साथ में पानी और उपजाऊ मिट्टी से लहलहाती अपार कृषि संपदा। यूरोप के जहाजी आहें भरते थे-काश! जिंदगी में एक बार इस देश जाने का मौका मिल सके। इसके फायदे नुकसान दोनों हुए। हमारी संपदा, यश और समृद्धि ने साम्राज्यवादियों और आक्रमणकारियों को भी आकर्षित किया। बार बार ये धरती हमलों से लहुलुहान हुई। पंद्रहवीं शताब्दी में तातारियों की प्रसिद्ध मुगल जाति का आक्रमण इतना जबरदस्त था कि यहां उनका ही कब्जा हो गया। उनके साये में बीतीं दो लंबी शताब्दियां। फिर अंग्रेज आये, यहां के शासक बन बैठे। ये समय वो भी था जब देशभर में फैलीं 500 से ज्यादा देसी रियासतों और राजाओं ने एक होना शुरू किया।

ये समय का खासा महत्वपूर्ण संधिकाल था। कहते हैं कि यात्राएं सिखाती हैं, दिमाग की खिड़कियां खोलती हैं, ज्ञान के नये चंवर डुलाती हैं, बदलाव की वाहक होती हैं। यकीनन इस संधिकाल में कुछ चमत्कारिक यात्राओं ने इस देश में चमत्कार कर दिया। अंग्रेजों की दासता के साथ हम जकड़े हुए थे कुरुतियों, अंधविश्वास, छूआछूत, जातिवाद और अशिक्षा से भी। राष्ट्रीय चेतना भी कहां थी। ऐसे में कुछ यात्राओं ने देश को झकझोरा। सोते से जगाया। नई चेतना और सूत्र में बांधा।

यूं भी भारतीय सभ्यता के हजारों सालों के इतिहास में यात्राओं की एक लंबी परंपरा रही है। इसके एक छोर पर अगर महात्मा बुद्ध दिखते हैं तो दूसरे छोर पर महात्मा गांधी। बुद्ध की यात्रा राजमहल से निकलकर झोंपड़ी और गांवों तक गई। उन्होंने अपनी यात्राओं के जरिए धर्म और दर्शन को मानवीय दुखों और सामाजिक असमानताओं को दूर करने का माध्यम बनाया। वो खूब यात्राएं करते थे। गांव गांव घूमते थे। ज्ञान की गंगा जगाते थे। बुद्ध के दर्शन और यात्राओं से प्रभावित होकर मौर्य शासक अशोक ने भी लंबा समय यात्राओं में व्यतीत किया, जिससे वह आम आदमियों के संपर्क में आ सका और शासन को मानवीय देने में सफल हुआ। जब देश धार्मिक कर्मकांडों से त्राहि त्राहि करने लगा तो शंकराचार्य ने यात्रा का बीड़ा उठाया। केरल से कन्याकुमारी की हजारों मील की यात्रा पैरों से नापी। जगह जगह शास्त्रार्थ के माध्यम से धर्म के कर्मकांडीय स्वरूप पर गहरी चोट की। धार्मिक संप्रदायों में दूरी पाटने की कोशिश की।

असल मायनों में जिन यात्राओं ने देश को पराधीनता से निकालने और बदलने का काम किया, वो उन्नीसवीं शताब्दी में विवेकानंद से शुरू हुई थीं। इस तेजस्वी युवा ने वाराणसी ने देश को जगाने की यात्रा शुरू की। लोग तो उन्हें देखते ही रह जाते। कितना तेज और कितनी सादगी। उनकी बातें गहरा असर करतीं। लंबा चौड़ा कद। उन्नत ललाट। भगवा रंग को चोला। गजब का आकर्षण था उनके व्यक्तित्व में। उत्तर भारत के तमाम शहरों, पहाड़ी इलाकों से होते हुए वह राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और फिर दक्षिण की ओर बढ़े। जहां जाते भीड़ उन्हें देखने और सुनने के लिए उमड़ी चली आती। वह देश को समझ भी रहे थे और जगा भी रहे थे। जब ये यात्रा पूरी हुई तो वह 1893 में उस सफर पर निकले जिसने पहली बार विदेशों में भारत की एक अलग छवि बनाई। आध्यात्मिक और शैक्षिक तौर पर ज्ञानवान देश की। इस यात्रा में वह जापान से होते हुए शिकागो गये। शिकागो में विश्व धार्मिक सभा के जादुई संबोधन की गूंज तो आजतक सुनाई देती है। वापसी में वह इंग्लैंड के साथ यूरोप में होते हुए लौटे। उन्होंने देखा कि दुनिया किस तरह बदल रही है। किस तरह व्यापक सामाजिक और आर्थिक बदलावों से गुजर रहा है समूचा यूरोप। ये वहां औद्योगिकीकरण, नारी मुक्ति की बेला थी। 1896 में वह स्वदेश आ पहुंचे। अब उनके पास कुछ ऐसी बातें थीं जिनका आत्मसात वो भारतीय संस्कृति और परंपराओं के साथ करना चाहते थे। उन्होंने घूम घूमकर भारतीय महिलाओं को शिक्षा, औद्योगिकरण और आजादी की बात की। जातिपात खत्म करने की अपील की। देश में विज्ञान की पहली बार वकालत करने वाले वही थे। वह पहले शख्स थे जिन्होंने अपनी पाश्चात्य यात्रा के जरिए देशभर में राष्ट्रीय, सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना फैलाई। देश के बहुत से राजे रजवाड़ों और नेताओं पर उनकी बातों का इतना सकारात्मक असर पड़ा कि उन्होंने उस दिशा में काम भी शुरू कर दिया। महात्मा गांधी, बिपिन चंद पाल और बाल गंगाधर पर भी उनका खूब असर था। यूरोप का जागरण वह देख आये थे, लिहाजा उनकी बातों ने देश में औद्योगिकरण के लिए भी नया माहौल बनाया। कहा जाता है कि जमशेद जी टाटा को उनसे खासी प्रेरणा मिली थी।

19वीं शताब्दी की ही कुछ और यात्राएं भी थीं, जिन्होंने देश सांस्कृतिक फलक को विस्तृत किया। सामाजिक उन्नति, वैचारिक बदलाव की राह दिखाई। यकीनन हमारे साहित्य पर भी इन यात्राओं का कुछ कम असर नहीं पड़ा। आधुनिक भारत के पिता कहे जाने वाले वाले बंगाल के समाज सुधारक राजा राममोहन राय जब वर्ष 1830 में इंग्लैंड और फ्रांस की यात्रा से लौटे तो उन्होंने सामाजिक परिवेश में बदलाव का आंदोलन ही छेड़ दिया। आने वाले बरसों में इसका खासा असर साफ साफ दिखा। आज हम जिस खुले माहौल में सांस ले रहे हैं, उसका बहुत श्रेय उन्हें ही देना चाहिए।

19वीं सदी के आखिर से 20वीं सदी के शुरुआती दशकों में रविंद्र नाथ टैगोर ने चीन, जापान समेत करीब 13 देशों की यात्रा की। इसके प्रभाव से उन्होंने देश में नये तरह की शिक्षा की शुरुआत की। शांति निकेतन की स्थापना इसी ओर पहला कदम था। साहित्य के फलक भी उनकी इन यूरोप की यात्राओं ने ही खोले, जिसके असर फिर भारतीय साहित्य पर भी देखा गया। यकीनन इन यात्राओं से ज्ञान-विज्ञान की खिड़कियां और खुलीं।

राहुल सांकृत्यायन तो ज्ञान और दुर्लभ ग्रंथों की खोज में हजारों मील दूर पहाड़ों और नदियों के बीच भटके, उन ग्रंथों को खच्चरों में बांधकर देश लाये। सामाजिक क्रांति की दिशा में उनका योगदान भी कोई कम नहीं। उनके जीवन का मूलमंत्र ही घुमक्कड़ी था, वो कहते थे कि यात्राएं जीवन को गतिशीलता के साथ जोड़ती हैं। उन्होंने घुमक्कड़ी पर काफी कुछ लिखा। उनके शब्दों में घुमक्कड़ी के बढक़र व्यक्ति और समाज के लिए कोई हितकारी नहीं हो सकता।

महात्मा गांधी पढ़ाई के लिए इंग्लैंड गये। फिर वकालत करने दक्षिण अफ्रीका। लेकिन इन दोनों देशों की यात्राओं ने उन्हें भारतीयों के साथ होने वाले भेदभावों के प्रति खासा आहत किया। दक्षिण अफ्रीका में रेलयात्रा के दौरान ही एक घटना ने उनके पूरे जीवन को बदल डाला। यहां से उन्हें संघर्ष करने का जो माद्दा मिला तो वह दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों के अधिकारों के सबसे बड़े पैरवीकार बनकर उभरे।

जब वह भारत लौटे तो वर्ष 1919 में पहला काम ये किया कि पूूूरे देश की यात्रा शुरू की। सुदूर के इलाकों में गये। गांवों में गये। ऐसी जगहों तक गये, जहां तक पहले देश का कोई नेता नहीं गया था। सही मायनों में देश की बदहाली, गरीबी, छूआछूत, जातिपात और विषमताओं को उन्होंने ही इन यात्राओं से ही गांवों की असली ताकत और हालत के बारे में जाना। यात्राओं को प्रचार का माध्यम बनाकर इसका उपयोग अगर उन्होंने देश की आजादी के लिए किया तो साथ ही सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ भी जागरुकता का बिगुल बजाया। उनकी यात्राओं से पूरे देश में प्रेरणा की लहर दौड़ पड़ी। दरअसल गांधी जी ने इन लंबी यात्राओं के जरिए जनमानस की शक्ति और कमजोरियों की भी पड़ताल की। वह यात्राओं में लोगों से मिलते थे, बातें कहते थे। उसका असर इतना जबरदस्त हुआ कि पूरा देश उठ खड़ा हुआ। आमजनता, किसान, मजदूर और युवा राष्ट्रीय आजादी आंदोलन की मुख्य शक्ति बन गये। ब्रिटिश हुकुमत बुरी तरह से भयभीत हो उठी।

इन्हीं यात्राओं के दौरान उन्होंने जब चंपारण में किसानों के बुरे हाल को देखा तो आंदोलन छेड़ दिया। खेड़ा (गुजरात) में भी इसी तरह की समस्या पर मोर्चा लिया। गांधी जी की कुछ यात्राएं बहुत प्रसिद्ध हुईं। 1920-21 में अली भाइयों के साथ की गई असहयोग आंदोलन यात्रा, 1930 में अहमदाबाद से दांडी तक का 240 मील का दांढी मार्च और 1932 में वर्धा आश्रम से शुरू हुई हरिजन यात्रा को कौन भूला सकता है। वाकई इन ऐतिहासिक यात्राओं ने देश के जनजीवन, आत्मविश्वास पर गहरी छाप छोड़ी। देखते ही देखते देश की मानसिक स्थिति का कायाकल्प हो गया। गांधी की एक आवाज देश की साज बन गई। जब देश स्वाधीन हो रहा था, इस मौके पर कई जगह जगह दंगे होने लगे, तब गांधी जी यात्राओं के जरिए ही शांति अपील में जुटे थे। महात्मा गांधी जी की इन तमाम यात्राओं ने देश को भावनात्मक तौर पर जितना एक किया, वैसा शायद ही किसी ने किया हो।

हमारा देश आज दुनियाभर की बड़ी आर्थिक ताकतों में शुमार किया जाने लगा है लेकिन जिस समय आजादी मिली, उस समय देश का आधारभूत ढांचा इतना कमजोर था कि सोचा भी नहीं सकता था कि देश को किस तरह मजबूती की राह पर आगे बढ़ाया जाये। ऐसे में नेहरू जी ने जिस खास विजन से देश की उन्नति का सपना देखा, उसकी प्रेरणा उन्हें कई सालों पहले यूरोप और रूस की यात्रा से मिली थी। उस यात्रा में ही उन्होंने समझ लिया था कि देश की तरक्की तभी हो सकेगी, जब बड़े पैमाने पर भारी उद्योग और कारखाने फलेंगे-फूलेंगे। हालांकि ये कहना चाहिए वर्ष 1923 और 1927 में कांग्रेस का महासचिव बनाये जाने के बाद भी उन्होंने देश की व्यापक यात्रा की थी, जिसने देश के बारे में उनकी समझबूझ को और बेहतर करने का काम किया। देश की आजादी के बाद बनाई गई पंचवर्षीय योजना का खाका भी उन्हें 1926-27 में सोवियत संघ की यात्रा से मिला था। माक्र्सवाद और समाजवादी विचारधारा में नेहरू की वास्तविक रुचि भी इसी यात्रा से पैदा हुई।

आजादी के बाद जिन दो यात्राओं ने देश के सामाजिक और आर्थिक परिवेश को और बदला, उनमें से एक आचार्य विनोबा भावे की यात्रा थी। उन्होंने गांव गांव घूमकर अमीरों को जमीन दान के लिए प्रेरित किया। इसका असर इतना जबरदस्त हुआ कि बड़े पैमाने पर बड़े जमींदारों और भूमिस्वामियों ने अपनी जमीन का बड़ा हिस्सा दान में दे दिया। ये जमीनें भूमिहीन गरीबों को दी गईं, इससे गांवों में एक नये किस्म का भाईचारा भी उत्पन्न हुआ। गांवों में बेहतरी और समृद्धि के द्वार भी खुल सके। उनकी इन यात्राओं को भूदान आंदोलन का नाम दिया गया। दूसरी यादगार यात्रा के नायक जयप्रकाश नारायण थे। 1973-74 में उन्होंने तूफानी यात्राएं कीं-गुजरात से बिहार तक। युवाओं के आक्रोश को इन यात्राओं से नई आवाज ही नहीं बल्कि नई पहचान भी मिली। इन्हीं यात्राओं की बदौलत देश में युवा शक्ति को पहचाना गया। फिर देश में युवाओं की भूमिका को भी सही तरीके से परिभाषित कर तरक्की की मुख्य धारा से जोड़ा जा सका।

मौजूदा दौर में जब हमारे युवाओं के लिए बाहर के देशों में जाने के मौके ज्यादा बढ़े हैं तो बाहरी देशों की ज्यादा यात्राएं कर रहे हैं तो ज्यादा सीख भी रहे हैं। जिसका असर साफतौर पर हमारी सोच और जीवनशैली पर दिखने लगा है। हम दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चल ही नहीं रहे बल्कि दुनिया को अपनी आगे बढऩे की ताकत से चमत्कृत भी कर रहे हैं। यात्राएं विस्तार देती हैं, सिखाती भी हैं। सुखद और सकारात्मक बात ये भी है कि इस देश की यात्रा को इन तमाम यात्राओं ने ही गढ़ा है और ये प्रक्रिया जारी है।



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