उच्च शिक्षा और NET की बदहाली
« »12-Aug-2024 | आयुष्मान
दुनिया भर में शिक्षा व्यवस्था मूलतः तीन स्तरों पर संचालित होती है। पहला स्तर तब शुरू होता है जब बच्चा भाषा सीख रहा होता है। इस स्तर की शिक्षा में शिक्षक, परिवार, समाज इत्यादि की भूमिका अहम हो जाती है। बच्चा इस दौरान ज्यादातर नकल के सहारे ही सीखता है। प्राथमिक स्तर की शिक्षा की यही प्रणाली यही है। इसे पैसिव लर्निंग भी कहा जाता है। दूसरे स्तर की शिक्षा में भी हम बताये गए तथ्यों को याद करते हैं। लेकिन कुछ-कुछ जिज्ञासा भी इस दौरान उत्पन्न होने लगती है। इस तरह की शिक्षा प्रणाली में शिक्षक और छात्र, दोनों की भूमिका होती है। इसमें शिक्षक और छात्र के बीच संवाद होता है। तीसरा स्तर उच्च शिक्षा का है। उच्च शिक्षा में तथ्यों को याद करने से ज्यादा उनके विश्लेषण पर जोर दिया जाने लगता है। ‘क्या’ की जगह ‘क्यों’ और ‘कैसे’ जैसे सवाल अहम हो उठते हैं। इसके केंद्र में छात्र ही होता है। शिक्षक की भूमिका लगभग नगण्य हो जाती है। इसे एक्टिव लर्निंग भी कहा जाता है।
प्राथमिक शिक्षा की हालत यह है कि बच्चों को किसी तरह रटवा दो। रटवाने के इस क्रम में बच्चों के प्रति क्रूरता बरती जाती है। इस क्रूरता का सामान्यीकरण इस हद तक हो चुका है कि कोर्ट ने जब स्कूल में दिये जाने वाले दंड पर रोक लगाई तो शिक्षकों को तो छोड़िये अभिभावक भी परेशान नज़र आये। इन सबकी सख़्त अवधारणा है कि बिना पीटे बच्चों को पढ़ाया नहीं जा सकता है।
माध्यमिक शिक्षा में जब बच्चों में थोड़ी जिज्ञासा उत्पन्न होना शुरू होती है तो शिक्षकों द्वारा उसका ठीक से जवाब नहीं दिया जाता है। यही समय किशोरावस्था का है। छात्रों में शारीरिक और मानसिक रूप से बहुत सारे परिवर्तन होना शुरू होते हैं। इन बच्चों के सवालों को बहुत संवेदनशीलता से सुने जाने की ज़रूरत होती है। पर आलम यह है कि प्रजनन जैसे विषयों को तो शिक्षक चलताऊ तरीके से पढ़ा देते हैं। वह यह मानकर चलते हैं कि इन्हें तो सब पहले से पता होगा। जब यह शिक्षा क्लासरूम में नहीं दी जाती है तो बच्चे बाहर सीखने की कोशिश करते हैं। ख़ासकर पोर्न वेबसाइट्स के सहारे। वहाँ ऑनलाइन बाज़ार उन्हें अपने मुनाफ़े को ध्यान में रखते हुए अपने तरीके से तोड़-मरोड़कर और लुभावन तरीके से सिखाता है। नतीजन, वहाँ एक किस्म की कुंठा बनती है। जो चीज़ शिक्षा के सहारे सामान्य की जा सकती थी, ख़राब अध्यापन से वह कुंठा में तब्दील हो जाती है।
उच्च शिक्षा की हालत और ख़राब है। उच्च शिक्षा किसी भी देश की शिक्षा व्यवस्था का आईना होती है। हम किस तरह की बहसें कर रहे हैं, किस तरह के शोध कर रहे हैं। उच्च शिक्षा में हमारा नज़रिया विश्लेषण परक होना चाहिए था। लेकिन आलोचनात्मक ढंग से किसी चीज़ को देख सकने में ज्यादातर छात्र नदारद हैं।
परीक्षा में सवाल पूछा जाता है कि कबीर मूलतः भक्त कवि हैं या क्रांतिकारी। ऐसे सवालों के उत्तर के लिए कबीर को समग्रता में देखे जाने की ज़रूरत है। छात्रों ने देख लिया कि रामचंद्र शुक्ल ने कबीर के लिए क्या कहा, हजारीप्रसाद द्विवेदी ने क्या कहा। उत्तर तैयार हो गया। लगभग सबने एक जैसे उत्तर लिखे। क्योंकि सामग्री एक जैसी है। मजेदार बात यह है कि हर साल यही सवाल आते हैं और उत्तर भी यही होते हैं। दूसरा सवाल आता है कि प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं, टिप्पणी कीजिए। सबने टिप्पणी कर दी। जिन सवालों से आलोचनात्मक विवेक विकसित होता, पहले तो वे गायब हैं। दूसरे, अगर वो पूछे भी गए हैं तो उनके हर वर्ष लिखे जाने वाले घिसे-पिटे जवाब मिलते हैं।
भारत में विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों को मान्यता देने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन किया गया। यह केंद्र सरकार के अधीन आता है। विश्वविद्यालयों को यूजीसी द्वारा ही अनुदान (आर्थिक सहायता) भी मिलता है। यही यूजीसी एक परीक्षा करवाती है जिससे विश्वविद्यालयों में पढ़ाने की इच्छा रखने वाले छात्रों की पात्रता तय होती है।
यूजीसी ने हिन्दी के लिये बीते कुछ सालों में जो परीक्षा कराई है उसमें आये सवालों का विश्लेषण किया जाए तो उच्च शिक्षा की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। प्रेमचंद का एक उपन्यास है ‘गोदान’। बहुत लोकप्रिय है। अगर हिन्दी साहित्य बोलें तो लगता है मानों गोदान की प्रतिध्वनि ही एक तरह से सुनाई देती है। यह उपन्यास कृषक जीवन पर आधारित है। इसमें बेलारी और सेमरी दो गांवों का ज़िक्र है। सारा उपन्यास छोड़कर नेट की परीक्षा में सवाल आता है कि बेलारी और सेमरी के बीच की दूरी कितनी थी। इस उपन्यास की गहरी संवेदनाएं व संदेश एक तरफ़ और दूसरी तरफ़ ऐसे सवाल! तो क्या परीक्षार्थियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वृहद उपन्यासों में से इस तरह के सतही तथ्य याद रखें? अगर हाँ तो तब उच्च शिक्षा की जैसी हालत है, वो एकदम दुरुस्त है।
निराला की एक प्रसिद्ध कविता है- राम की शक्ति पूजा। आलोचकों का यहाँ तक कहना है कि अगर निराला ने सिर्फ़ यही एक कविता लिखी होती तो भी उनकी कीर्ति में कोई कमी नहीं होती। यह एक लंबी कविता है। इस कविता की किन्हीं चार पंक्तियों को उठाकर क्रम से लगाने का सवाल आ जाता है। एकदम इसी तरह से निबंधों में भी सवाल बना दिये जाते हैं। सवाल यह उठता है कि क्या किसी विद्यार्थी के लिए पूरा उपन्यास याद रखना मुमकिन है? और अगर किसी ने याद कर भी लिया तो क्या हम वाकई इससे उस विद्यार्थी की संवेदनात्मक क्षमता का आंकलन कर पाएँगे या सिर्फ रटने की क्षमता का?
नेट की यही परीक्षा देकर जो लोग सहायक आचार्य बनेंगे फिर उनसे क्या उम्मीद की जाएगी? क्या पढ़ाने की यह ट्रेनिंग कारगर है? देखने से लगती तो नहीं है। हम हर साल बस डिग्रियां बाँट रहे हैं। हमारी गुणवत्ता क्या है, इस पर हमें विचार करना होगा।
सेंटर फॉर ग्लोबल यूनिवर्सिटी ने अपनी रैंकिंग जारी की। हमारा कोई भी विश्वविद्यालय शीर्ष 400 तक में भी नहीं है। यह रैंकिंग चार आधारों पर तय होती है। पहला-शिक्षा, दूसरा-रोजगार के अवसर, तीसरा-पढ़ाने वाले शिक्षक कैसे हैं? और चौथा- शोध का स्तर क्या है?
शिक्षा का स्तर यही है कि जिस उच्च शिक्षा में हमें विश्लेषण करने का विवेक चाहिए, वहाँ हम बस रटने में लगे हैं। यही परीक्षा की मांग भी है। रोजगार तो दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है। युवाओं की एक बड़ी आबादी बेरोजगार है। कोई विश्वविद्यालय, कोई पाठ्यक्रम बेरोजगारी दूर करने का दावा नहीं कर सकते हैं। शोध किये हुए छात्र को आप कैसे समझायेंगे? कहाँ खपेगा उसका ज्ञान? चूंकि शिक्षक भी इसी ढांचे से तैयार हो रहे हैं तो उनकी भी हालत ख़राब है। हैरत की बात यह है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए कोई परीक्षा तक नहीं होती है। सीधे साक्षात्कार के सहारे उनकी नियुक्ति की जाती है। सत्ता की चापलूसी और आचार्यों की कृपा से जिनका मार्ग प्रसस्त होता हो, उनसे उम्मीद भी क्या ही की जा सकती है। शोध हर साल होते हैं। सभी विश्वविद्यालयों में ठीक-ठाक दाखिले भी होते हैं। लेकिन टटोला जाये तो बीते सालों में क्या कुछ नया काम वाकई में हुआ, तो कुछ भी नज़र नहीं आता है। शोधग्रंथ या तो धूल इकट्ठा करने का ज़रिया बन चुके हैं या फिर चूहों की खुराक। उनकी उपयोगिता कहीं नज़र नहीं आती है।
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