बिंदेश्वर पाठक: भारत में शौचालय क्रांति के जनक

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  16-Aug-2023 | संकर्षण शुक्ला




कल भारत अपना 77वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा था। इस दौरान एक ऐसी खबर आई जिसने सम्पूर्ण भारत को स्तब्ध कर दिया। इस खबर का मजूमन था- सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक का निधन। देश की राजधानी दिल्ली में खत्म हुआ उनका ये सफर विश्व के सबसे प्राचीन लोकतंत्र वैशाली से शुरू हुआ था। 

आज से लगभग अस्सी बरस पहले वैशाली जिले के रामपुर बघेल गाँव मे योगमाया देवी और रमाकांत पाठक को एक पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम बिन्देश्वर पाठक हुआ। बिंदेश्वर पाठक का लालन-पालन एक परंपरागत रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में हुआ। हालांकि इनके घर वाले शिक्षा के महत्त्व से भलीभांति परिचित थे और उन्होंने बिंदेश्वर पाठक को खूब पढ़ाया भी। सात बरस के बिंदेश्वर पाठक अक्सर अपने यहाँ एक स्त्री को देखते थे जिसके जाने के बाद उनकी दादी उस जगह पर गंगा जल का छिड़काव करती थी। एक दिन ऐसे ही वो स्त्री बांस का सूप, डगरा और चलनी लेकर आई। बिंदेश्वर पाठक ने जिज्ञासावश उसे छू लिया। यह सब उनकी दादी ने देख लिया। इसके बाद उनकी दादी ने उनका शुद्धिकरण किया। 

ऐसे रूढ़िवादी माहौल में पल-बढ़ रहे बिंदेश्वर पाठक पर अपनी माँ की सीखों का खासा प्रभाव था। वो अक्सर इसका जिक्र भी किया करते थे- "मेरी मां ने मुझे हमेशा दूसरों की मदद करना सिखाया। उसने मदद के लिए आए किसी भी व्यक्ति को मना नहीं किया। उनसे मैंने बदले में कुछ भी अपेक्षा किए बिना देना सीखा। ऐसा कहा जाता है कि इंसान अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों के लिए पैदा होता है।''

बिंदेश्वर पाठक ने अपने बचपन और किशोरावस्था का अधिकांश समय गाँव मे बिताने के बाद पटना शहर के बी.एन कॉलेज में दाखिला लिया। वहाँ से इन्होंने समाजशास्त्र में स्नातक की उपाधि ली। समाजशास्त्र की पढ़ाई के दौरान इन्होंने समाज के वास्तविक तानेबाने को समझने की कोशिश की। खासकर समाज के वंचित वर्गों की दशा देखकर इनका हृदय द्रवित हो जाता था। इस दौरान यह बिहार में सहकारिता आंदोलन के अग्रणी नेताओं दीप नारायण सिंह और भागदेव सिंह योगी के संपर्क में आए। इनके साथ ये बिहार गांधी शताब्दी समारोह समिति से जुड़ गए। यह समिति भंगी मुक्ति आंदोलन चला रही थी जिसका मुख्य कार्य मेहतरों की मुक्ति था। 

दरअसल उस दौर में समाज मे शुष्क शौचालय का प्रचलन था और इस कारण सफाईकर्मियों को हाथ से मैला ढोना पड़ता था और यह कार्य समाज के एक जाति विशेष के लोग ही करते थे और इनकी स्थिति बेहद दयनीय थी। इनके पास न तो सामान्य मानव के लिए जरूरी मानवीय अधिकार थे और न ही आजीविका के लिए पर्याप्त साधन थे। ऐसे में अक्सर इनकी आकस्मिक मौत भी हो जाती थी और कई बार जीते हुए भी गंभीर बीमारियों के शिकार हो जाते थे। 

शुष्क शौचालय के समाधान हेतु बिंदेश्वर पाठक ने वर्ष 1968 में डिस्पोजल कंपोस्ट शौचालय की शुरूआत की। यह शौचालय आपके आसपास मिलने वाली सामग्री से तैयार किया जा सकता था और इसकी लागत बेहद कम थी। इस तरह बिंदेश्वर पाठक ने स्वच्छता के क्षेत्र में एक लागत वहनीय विकल्प मुहैया कराया जो बाद में सुलभ इंटरनेशनल का आधार भी बना। स्वच्छता को जन आंदोलन बनाने के लिए पाठक जी ने वर्ष 1970 में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की। इसके तहत विभिन्न शहरों, कस्बों और बड़े-बड़े गांवों में सुलभ शौचालयों की शृंखला खोली गई। 

ये सुलभ शौचालय नागरिकों को स्वच्छ शौचालय की सुविधा मुहैया करा रहे थे। इसके साथ ही यह मानव अधिकार, पर्यावरण, ऊर्जा के गैर पारंपरिक स्रोतों, अपशिष्ट प्रबंधन और सामाजिक सुधार को भी बढ़ावा दे रहे थे। सुलभ शौचालय ने शौचालय के टिकाऊ और लागत वहनीय विकल्प के प्रति लोगों को जागरूक भी किया। इसने लोगों को खुले में शौच के दुष्प्रभावों को भी बताया। यह एक ऐसा सामाजिक आंदोलन था जिसने बिना किसी दबाव के लोगों में स्वच्छ आदतों को विकसित किया। इसी का परिणाम है कि भारत में नियोजित रिहायशी इलाकों में खुले मे शौच की समस्या लगभग समाप्त हो गई। वर्ष 2014 में शुरू हुए स्वच्छ भारत आंदोलन को सुलभ इंटरनेशनल ने बहुत संबल प्रदान किया। 

वंचित समुदायों के प्रति सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक की संवेदना यूं ही नहीं उपजी थी बल्कि ये उनके द्वारा अनुभव किये गए विभिन्न अनुभवों का परिणाम थी। पाठक जी ने एक समारोह में बताया था कि एक बार वो किसी चाय की दुकान पर बैठे हुए चाय पी रहे थे। इस दौरान उन्होंने देखा कि सांड ने एक बच्चे पर हमला कर दिया है। लोगबाग उसकी मदद को दौड़ रहे है। इसी बीच एक आवाज आती है कि यह बच्चा मैला ढोने वाले समुदाय से ताल्लुक रखता है। ऐसे में उस बच्चे की मदद को उठ रहे अनेक कदम अचानक से ठिठक जाते हैं। हालांकि बिंदेश्वर पाठक अपने कुछ साथियों की मदद से उस बच्चे को अस्पताल पहुँचाते हैं लेकिन उस बच्चे की मौत हो जाती है।

ऐसी घटनाएँ बिंदेश्वर पाठक के भीतर अपवर्जित समूह के प्रति कुछ करने का जुनून पैदा करती थीं। इसके साथ ही उन्हें मानवीय गरिमा का एहसास भी था और वो मानव को गरिमामयी जीवन देने के लिए सतत कटिबद्ध भी रहे। इसी का परिणाम है कि उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल के तहत देशभर में करीब 8500 शौचालय और स्नानघर स्थापित किये। इन स्थानों पर शौचालय के लिए महज 5 रूपये और स्नान के लिए दस रूपये लिए जाते हैं। कई स्थानों पर तो यह मुफ्त सेवा भी है। बिंदेश्वर पाठक के प्रयासों से ही भारत वर्ष 2001 से ही वर्ल्ड टॉयलेट डे मना रहा है। इन्हीं के प्रयासों से संयुक्त राष्ट्र संघ ने 19 नवंबर 2013 को विश्व शौचालय दिवस की मान्यता दी। इनके प्रयासों को सम्मान देने के लिए वर्ष 2003 में इन्हें भारत के प्रतिष्ठित पद्म भूषण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। बिंदेश्वर पाठक  का जीवन बेहद प्रेरणादायक है जो हमें यह सिखाता है कि मानव मात्र का धर्म है कि वो असहायों के प्रति संवेदना रखे और उनकी मदद के लिए बढ़-चढ़कर कार्य करें। वो स्वयं कहा करते थे-

"किसी पीड़ित व्यक्ति की मदद करना ईश्वर की पूजा करने जैसा काम है।"

  संकर्षण शुक्ला  

संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।



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