अमीर ख़ुसरो: ‛तूती-ए-हिन्द’
« »29-Jun-2023 | सचिन समर
अमीर खुसरो भारत की उन महान विभूतियों में से हैं, जो इस देश के इतिहास में भाषा, साहित्य, संगीत और देश की सांस्कृतिक एकता के क्षेत्र में अपने महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए सदैव जीवित रहेंगे। अमीर खुसरो ने धार्मिक संकीर्णता और राजनीतिक छल-कपट के उथल-पुथल से भरे माहौल में रहकर हिन्दू-मुस्लिम एवं राष्ट्रीय एकता, प्रेम, सौहार्द, मानवतावाद और सांस्कृतिक समन्वय के लिए पूरी ईमानदारी और निष्ठा से कार्य किया। वे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के कवि थे, जिनके काव्य की लोकप्रियता भारत में ही नहीं, भारत के बाहर मध्य एशिया के अनेक देशों तक फैली है। ईरान के प्रसिद्ध फारसी कवि हाफिज़ शीराज़ी ने तो उन्हें 'तूती-ए-हिन्द' के नाम से सम्बोधित किया था। आज भी, भारत, पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान और तजाकिस्तान आदि विश्व के कई देशों में उनके साहित्य का पठन-पाठन होता है।
अमीर खुसरो भारतीय परम्परा और परिवेश से बहुत प्रभावित थे और उन्होंने इस्लामी परम्पराओं को भारतीय विरासत के अंदर समाहित करने का प्रयास किया। उन्होंने दो विभिन्न संस्कृतियों, दो विभिन्न धार्मिक विश्वासों और परम्पराओं में परस्पर सौहार्द, प्रेम और सामंजस्य का वातावरण तैयार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। संगीत के क्षेत्र में अमीर खुसरो ने अपने समन्वयकारी प्रवृत्ति के अनुकूल अनेक चमत्कार किए। उन्होंने भारतीय संगीत में कई राग-रागनियों का आविष्कार किया, कई वाद्य यन्त्रों को ईजाद करने का श्रेय भी उन्हें प्राप्त है।
शिक्षा-
अमीर खुसरो के पिता स्वयं पढ़े लिखे नहीं थे, क्योंकि उन्होंने अपने काव्य संग्रह 'गुर्रतुल कमाल’ की भूमिका में ‛उम्मी' अर्थात अनपढ़ बताया है। परन्तु फिर भी उनके पिता ने उनकी शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध किया था। डॉ० शुजाअत अली सन्देलवी इस सन्दर्भ में लिखते हैं "चार बरस की उम्र तक अमीर खुसरो पटियाली में रहे इसके बाद अमीर सैफुद्दीन उनको अपने हमराह देहली ले लिये और वहाँ उनकी तालीम व तरबियत का बेहतर से बेहतर इन्तजाम किया।”
व्यक्तित्व एवं कृतित्व-
भारत की पुण्यभूमि ने अनेक महान विभूतियों को जन्म दिया है, जिनका यशोगान भारत में ही नहीं सम्पूर्ण संसार में गूंज रहा है। इन्हीं महान विभूतियों में से अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न हिन्दी साहित्य के आदिकालीन कवि अमीर खुसरो भी थे। अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न सूफी सन्त, महान कवि, बहुभाषाविद् एवं उच्चकोटि के संगीतज्ञ थे। खुसरो, फारसी तथा हिन्दी दोनों भाषाओं के लोकप्रिय कवि हैं। अमीर खुसरो खड़ीबोली हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं। डॉ० रामकुमार वर्मा के शब्दों में "खड़ीबोली में प्रथम लिखने वाले अमीर खुसरो हुये, जिन्होंने अपनी पहेलियों, मुकरियों आदि में इस भाषा का प्रयोग किया। यद्यपि ब्रजभाषा को ही उन्होंने विशेष आश्रय दिया, पर उन्होंने खड़ीबोली को भी उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा।" खुसरो की हिन्दी रचनाएँ आज भी अत्यन्त लोकप्रिय हैं। उनका हिन्दी काव्य आज भी इस बात का प्रमाण है कि उन्हें हिन्दी से कितना प्रेम था।
अमीर खुसरो ने अपने हिन्दी प्रेम को प्रकट करते हुये लिखा है-
तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिन्दी गोयम जवाब |
शक्र मिस्री न दारम कज़ अरब गोयम सुखन ।
अर्थात् मैं हिन्दुस्तान का तुर्क हूँ और हिन्दवी में उत्तर देता हूँ। मेरे पास मिस्र की मिठास नहीं कि मैं अरबी में बातें करूं।
अमीर खुसरो हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के प्रधान प्रतिनिधि थे। उन्होंने दो पृथक धर्मों- हिंदू तथा इस्लाम, दो भिन्न भाषाओं हिंदी तथा फारसी एवं दो अलग-अलग सभ्यताओं में अपनी रचनाओं के माध्यम से परस्पर समन्वय का कार्य किया था। निश्चय ही उनका व्यक्तित्व महान तथा कृतित्व वृहत है। अमीर खुसरो का वास्तविक नाम 'अबुल हसन यमीनुद्दीन' तथा 'खुसरो' उपनाम था। जलालुद्दीन खिलजी ने इनकी कविता से प्रसन्न होकर इन्हें ‛अमीर’ की उपाधि से सम्मानित किया था। तभी से यह अमीर खुसरो कहे जाने लगे। अमीर खुसरो ने प्रारम्भ में ‛सुल्तानी' उपनाम से कविताएँ लिखनी आरम्भ की थीं। इनके प्रथम फारसी काव्य संग्रह में इनका सुल्तानी उपनाम है। खुसरो के आध्यात्मिक गुरु हज़रत निजामुद्दीन औलिया इन्हें प्रेमपूर्वक तुर्क या तुर्क अल्लाह नाम से पुकारते थे। ईरान के प्रसिद्ध फारसी कवि 'अर्फी' तथा 'शिराज़ी' ने खुसरो को ‛तूती-ए-हिन्द’ नाम से सम्बोधित किया है।
जन्म तिथि के विषय में कुछ विद्वानों का विचार है कि खुसरो का जन्म 652 हि० अर्थात् 1254-55 ई0 में हुआ था। परन्तु प्रायः सभी विद्वान एक मत हैं कि खुसरो का जन्म 651 हि0, 1253 ई0 में हुआ था। इस प्रकार अमीर खुसरो का जन्म 1253 ई0 में 'पटियाली' जिला एटा (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। जिसको पहले मोमिनाबाद या मोमिनपुर भी कहा जाता था। यह स्थान 'गंगा नदी के किनारे स्थित है। अमीर खुसरो की माता भारतीय थीं उनका नाम दौलतनाज़ था एवं वे गयासुद्दीन बलबन के प्रसिद्ध प्रतिरक्षा मंत्री इमादुलमुल्क की सुपुत्री थीं।
संगीत में योगदान-
अमीर खुसरो ने संगीत में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने अपनी संगीतीय रचनाओं में भारतीय और फ़ारसी संगीत के तत्त्वों को मिलाया। उनकी कविताओं के अनुसार, उन्होंने कई नए संगीतीय वाद्ययंत्र और ताल बाज़ी के प्रदर्शन के विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वे तार संगीत के प्रणेता माने जाते हैं और उन्होंने अपने संगीत को "संगीत-ए-निंगारी" के रूप में वर्णित किया।
भारतीय संगीत के विषय में अमीर खुसरो ने कहा कि संसार के किसी भी देश के संगीत को भारतीय संगीत के समान नहीं कहा जा सकता, भारतीय संगीत मन तथा प्राणों में ज्वाला भड़का देता है और पशु पक्षियों को भी मोहित करता है।
अमीर खुसरो एक समर्पित सूफ़ी भक्त थे और उनकी कविताओं में धार्मिक तत्त्वों की गहराई दिखाई देती है। उनकी रचनाएँ मानसिक शांति, प्रेम और भगवान के प्रति उनकी अनुभूति को बयाँ करती हैं। उन्होंने साधारणतया भक्ति और सम्पूर्णता के सिद्धांतों के पक्ष में लिखा है, जिन्हें वे सूफ़ियत के अनुसार मानते थे। खुसरो ने कव्वाली गायन की प्रथा को जन्म दिया।
अबुल फजल के अनुसार खुसरो ने ‛कौल’ और ‘तराना’ का आविष्कार किया। फकीरउल्ला द्वारा लिखित ‘राग दर्पण’ के आधार पर अमीर खुसरो ने फारसी और भारतीय संगीत के मिश्रण से कुछ नए रागों की रचना की। जैसे- सरपरदा, जिला, शहाना, पूर्वी, साजगिरी इत्यादि। भारतीय विद्वानों को 12 स्वरों वाली मुकाम पद्धति से परिचित कराया और भारतीय ग्रंथों की विचारधारा ‘मुकाम पद्धति’ की ओर मोड़ दी। चिश्ती परंपरा में ‘बसंत’ और ‘रंग’ का प्रवेश ब्रजभाषा में विचरित गीतों का विभिन्न अवसरों पर अनिवार्य रूप से गाया जाना खुसरो की ही देन है। उन्होंने अनेक पहेलियाँ, दोहे और कुछ गीत भी लिखे हैं। अमीर खुसरो ने कई तालों की भी रचना की जैसे त्रिताल, आड़ाचारताल, सूलफाक, झूमरा, पश्तो इत्यादि।
इन्होंने पखावज (पखावज लकड़ी, चर्मपत्र, चमड़े और काले लेप से बना एक ताल वाद्य यंत्र है।) को दो भागों में विभाजित करके तबले का भी अविष्कार किया।
अमीर खुसरो निसंदेह युग प्रवर्तक भारतीय थे। कव्वाली की गोष्ठियों में जब शेख निजामुद्दीन चिश्ती नाचने लगते तब अमीर खुसरो भी गाते थे।
साहित्यिक योगदान-
अमीर ख़ुसरो ने अपने जीवनकाल में कई ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें उनकी विचारधारा, संगीत, साहित्य, तर्कशास्त्र, और धार्मिक विषयों पर व्याख्यान शामिल हैं। इनकी कृतियों की संख्या 99 बताई जाती है, परंतु अभी तक 45 कृतियों का ही पता चला है। कुछ प्रमुख ग्रंथों का वर्णन निम्नलिखित है:
'ख़ालिकबारी' (Khalikbari): यह ग्रंथ अमीर ख़ुसरो की अत्यंत महत्त्वपूर्ण रचनाओं में से एक है। इसमें उन्होंने तारीख़, भक्ति, विचारधारा, और धार्मिक मुद्दों पर व्याख्यान किया है।
'नुह-सिपी' (Nuh-Sipī): इस ग्रंथ में अमीर ख़ुसरो ने संगीत, ताल, और रागों के विषय में व्याख्यान किया है। इसमें उन्होंने अपने सांगेतिक ज्ञान की विस्तृत जानकारी साझा की है।
'दीवान-ए-ख़ुसरो' (Divan-e-Khusro): यह अमीर ख़ुसरो की कविताओं का संग्रह है। इसमें उनकी उर्दू, पर्सी, संस्कृत, और अरबी भाषा में लिखी गई कविताएँ शामिल हैं। यह ग्रंथ उनकी काव्यशैली, भाषा, और विचारधारा को समर्पित है।
'मिजान-उल-अंसाब' (Mizan-ul-Ansab): इस ग्रंथ में अमीर ख़ुसरो ने मुसलमान शासकों और उनके गृहवंशों के बारे में विवरण प्रस्तुत किया है। इसमें वे दिल्ली सल्तनत के शासकों के वंशज, परिवार, और उनकी एतिहासिक महत्त्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन करते हैं।
खुसरो की रचनाओं का अवलोकन करने पर हम देखते हैं कि उनकी रचनाएँ साहित्य, संगीत, तारीख़, तर्कशास्त्र, और धर्म से संबंधित विषयों पर आधारित हैं और उन्होंने अपने काल के सामाजिक, सांस्कृतिक, और धार्मिक मुद्दों पर गहरा प्रभाव डाला है।
आज भी हिंदी के कई लोकगीत और हिंदी की कई बूझ और बिनबूझ पहेलियाँ, मुकरियाँ हैं जो हमें अमीर खुसरो की याद दिलाती हैं, जैसे- यदि हम बूझ पहेली देखें (जिनमें उत्तर छिपा होता है)-
खड़ा भी लोटा पड़ा भी लोटा
है बैठा पर कहे हैं लोटा
खुसरो कहें समझ का टोटा।
(उत्तर- लोटा)
बिनबूझ पहेलियाँ-
एक थाल मोती से भरा
सबके सर पर औंधा धरा
चारों ओर वह थाली फिरे
मोती उससे एक न गिरे।
(उत्तर- आकाश)
मुकरियाँ-
पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो।
जब उतरयो पसीनो आयो।।
सहम गई नहिं सकी पुकार।
ऐ सखि साजन ना सखि बुखार।
ऐसी हजारों पहेलियाँ, मुकरियाँ, गीत आदि खुसरो हमें विरासत में देकर गए हैं जिनसे उनकी हिंदवी आज भी समृद्ध है।
अमीर खुसरो के महत्त्वपूर्ण कार्य-
खुसरो फारसी के ही महान कवि नहीं थे, उन्हें अपनी मातृभाषा हिन्दी (हिन्दवी) से भी बहुत प्रेम था। खुसरो ने दिल्ली के आस-पास की बोली को जिसे आगे चलकर खड़ी बोली का नाम दिया गया संवारने, सुधारने और साहित्यिक स्वरूप देने का सर्वप्रथम प्रयास किया। कालांतर में यही भाषा अपने परिनिष्ठित रूप में आधुनिक हिन्दी और उर्दू का आधार बनी और स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी हिन्दी को देश की राजभाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ।
सुल्तान की महफिल में खुसरो नई-नई गजलें प्रस्तुत करते थे। अलाउद्दीन खिलजी के युग में भी खुसरो दरबार से संबंधित रहे। मुल्तान से लौटने के पश्चात खुसरो ने लिखा है कि “मुझे ईरानी संगीत के चार उसूलों, 12 पर्दों तथा सूक्ष्म रहस्य का ज्ञान है।’’
आज भी शेख निजामुद्दीन चिश्ती की दरगाह में खुसरो के ब्रजवासी गीत परंपरा के रूप गाए जाते हैं। समारोह, वाद्ययंत्र, उर्दू कविता, संगीत, और सूफ़ी तत्त्वों की समन्वयित रचनाएँ - ये सब अमीर खुसरो की संगठन क्षमता और साहित्यिक ज्ञान का प्रतीक हैं। उनकी शानदार कविताएँ और संगीत रचनाएँ उनके समय से आज तक चर्चित हैं और उन्हें एक महान कवि और संगीतकार के रूप में मान्यता दी जाती है।
अमीर खुसरो अपने साहित्यिक और संगीतीय योगदान के माध्यम से भारतीय साहित्य और संगीत को नई ऊँचाइयों तक ले गये। उनकी कविताएँ और संगीतीय रचनाएँ उनके समय से आज तक उनके प्रशंसकों के द्वारा पसंद की जाती हैं और उन्हें एक महान कवि और संगीतकार के रूप में याद किया जाता है।
मृत्यु-
भारतीय इतिहास में अमीर खुसरो की मौत भी असीम समर्पण का उदाहरण स्थापित करती है। अमीर खुसरो को अपने आध्यात्मिक गुरु शेख निजामुद्दीन औलिया से अत्यधिक स्नेह था। जिस समय उनके गुरु की दिल्ली में मृत्यु हुई उस समय वे अपने आश्रयदाता सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के साथ बंगाल में थे। जब खुसरो को अपने मुर्शिद के देहान्त का समाचार मिला तो उनके हृदय को बड़ा आघात पहुँचा। वे तुरन्त दिल्ली की ओर चल दिये तथा उनके पास जो धन-सम्पत्ति थी वह सब लुटा दिया। कपड़े फाड़ डाले, मुँह में कालिख मल ली। अपने पीर की समाधि पर आकर कहने लगे- -
"सुबहान अल्लाह आफताबे दरजमीं ओ खुसरो जिन्दा।"
अर्थात् 'सुबहान अल्लाह, सूर्य पृथ्वी के नीचे छिप जाये और खुसरो जीवित रहे। यह कह कर खुसरो ने अपने सिर को कब्र पर मारा और मुर्छित हो गये। इसके पश्चात् खुसरो ने यह दोहा पढ़ा-
"गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस।।”
हज़रत निजामुद्दीन औलिया अक्सर कहा करते थे कि मेरी जिन्दगी की प्रार्थना करो क्योंकि तुम मेरे पश्चात् अधिक दिन तक जीवित नहीं रह पाओगे। लोगों को चाहिये कि तुम्हें मेरे बराबर में ही दफन करें। यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई और अपने प्रिय मुर्शिद की मृत्यु के छः महीने के भीतर ही खुसरो का भी देहान्त हो गया।" लगभग सभी सहमत हैं कि खुसरो की मृत्यु बुधवार के दिन 18 शिवाल 726 हि0 तदानुसार 27 सितम्बर, 1325 ई0 को हुई थी तथा हज़रत निजामुद्दीन औलिया की वसीयत के अनुसार खुसरो को उनकी कब्र के पास ही दफन किया गया था।
सचिन समरसचिन समर ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी वाराणसी से 'हिंदी पत्रकारिता' में स्नातकोत्तर किया है। वर्तमान में भारतीय जन संचार संस्थान नई दिल्ली में 'विज्ञापन एवं जनसंपर्क' पाठ्यक्रम में अध्ययनरत है साथ ही स्वतंत्र पत्रकारिता एवं लेखन कर रहे हैं। |
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