रचनात्मकता में है बेहतरीन करियर

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  03-Jun-2024 | शालिनी बाजपेयी




मनुष्य पूरी ज़िंदगी स्थिरता और स्थायित्व तलाशने की जद्दोजहद में जीता है। और जूझते-जूझते एक दिन मर भी जाता है किंतु जीवनभर स्थायित्व ढूंढ नहीं पाता। बड़े-बड़े पदों पर रहकर रिटायर हो चुके लोग भी स्थायित्व नहीं ढूंढ पाते। जिन्हें स्थायित्व महसूस होता भी है, वह तुलनात्मक मात्र होता है। क्योंकि स्थायित्व प्रकृति का नियम ही नहीं है। प्रकृति का सार्वभौमिक नियम अस्थायित्व है। यहां कुछ भी स्थाई नहीं है। आप देखिए ना, सभी राजनीतिक पार्टियां और राजनेता कुछ यूं राजनीतिक दांव-पेंच खेलते हैं, मानों वो कभी सत्ता से बाहर होंगे ही नहीं। जबकि आजतक ऐसा संभव ही नहीं हुआ। एक समय देश में कांग्रेस के सामने दूसरी पार्टियां दूर-दूर तक नहीं ठहरती थीं। आज वही कांग्रेस तब की अपेक्षा एकदम विपरीत हालातों से गुज़र रही है। संभव है, भविष्य में स्थितियां फिर बदल जाएं।

कहने का मतलब, स्थायित्व या सुरक्षा प्रकृति के नियम के विपरीत है। दुनिया का कोई जीव मनुष्य जितना सुरक्षित नहीं है फिर भी कोई आत्महत्या नहीं करता। आप देखते नहीं है, हिरण पानी पी रहा होता है और एकाएक मगरमच्छ उसे दबोच लेता है! मादा जिराफ़ बच्चे को जन्म दे ही रही होती है कि शेर उसपर टूट पड़ते हैं। मछली नदी में तैर रही होती है कि कोई पक्षी ऊपर से झपट्टा मारकर उसे दबोच ले जाता है। मछलियों, मुर्गों, बकरों, कीट, पतंगों... इत्यादि का जीवन तो प्राकृतिक मौत को उपलब्ध होना मानों लिखा ही नहीं होता। क्या मनुष्य उनसे भी अधिक असुरक्षित और अस्थाई है, जो वह आत्महत्या कर लेता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपेक्षाकृत सबसे सुरक्षित जीव है। उसे राह चलते कोई जीव निगल नहीं सकता। दुनिया में इतना खाद्यान्न उत्पादन हो रहा है कि सड़क के किनारे पड़ा कोई अनाथ व्यक्ति भी कम से कम भोजन व कपड़े के अभाव से तो नहीं ही मरेगा। और अगर उसमें रचनात्मकता है तो फिर तो वह मुक्त अर्थव्यवस्था के आधुनिक दौर में कुछ वर्षों में ही अपना एक साम्राज्य खड़ा करके खुद सैकड़ों लोगों को नौकरी देने के लायक बन सकता है। लेकिन फिर भी मनुष्य से ज़्यादा परेशान व हताश कोई नहीं है। उसकी सबसे बड़ी वज़ह है, रचनात्मक समझ की कमी।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारे पास एक स्वस्थ शरीर है। स्वस्थ मस्तिष्क है। जवानी की अथाह ऊर्जा है। हम इन सबका उपयोग करके इस ऊर्जा व समय के माध्यम से और रचनात्मकता के बूते समाज को बहुत कुछ बेहतर दे सकते हैं। अगर आप समाज को जीतना चाहते हैं तो आपको समाज के लिए उपयोगी बनना पड़ेगा। उपयोगी बनने का मतलब, आप शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, संगीत, खेल, उद्यम समेत तमाम क्षेत्रों में से किसी एक में भी कुछ ऐसी रचनात्मक व्यवस्था करिए कि उन्हें न्यूनतम शुल्क में उच्च गुणवत्ता की सेवाएं उपलब्ध करा सकें। फिर आप पाएंगे कि समाज ने चंद वर्षों में ही आपको पलकों पर बिछा लिया! धन, शोहरत और सम्मान आपसे बटोरते नहीं बनेगा। आज अनगिनत युवा अपने स्टार्टअप्स के बूते राष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक पहचान बना चुके हैं। कितनों को तो नागरिक सम्मानों से सम्मानित किया जाता रहा है। लेकिन आप रचनात्मकता दिखाइए तो सही। पहल करिए तो सही।

आप बहुत पढ़े-लिखे नहीं भी हैं, तो भी स्थानीय स्तर के बाज़ार की ज़रूरतों को समझते हुए बहुत कुछ कर सकते हैं। बहुत पढ़-लिखकर भी लोगों में कई बार नीचता और राक्षसी प्रवृत्ति देखी जाती है। इसलिए अगर आप बहुत पढ़े-लिखे नहीं भी हैं तो भी हीनता से भरने की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है। आप बहुत बेहतर कर सकते हैं। बस आपके इरादे नेक हों और मानसिक संकीर्णता, थोड़े से में फूल जाने जैसी प्रवृत्ति, दूसरों को गिराने, कमतर दिखाने, ईर्ष्या, द्वेष, बौद्धिक कुटिलता या आंतरिक दंभ जैसी बौद्धिक बौनेपन जैसी क्षुद्रताएं न हो।

'उदाहरण मात्र' के तौर पर अगर कहें तो, आप मोहल्ले या गांव की 50 महिलाओं को इकट्ठा करके एक समूह बना लीजिए। फिर उन्हें प्रशिक्षण दिलाकर एक कुटीर उद्योग का ही कुछ लगा दीजिए। चिप्स, पापड़, मैगी, अगरबत्ती, सेंवई, ऊन, स्वेटर, कढ़ाई-बुनाई, अचार, मोमबत्ती, मसाले...जैसे अनगिनत छोटे व स्थानीय स्तर पर मांग वाले उत्पाद तैयार किये जा सकते हैं। अगर इच्छाशक्ति मज़बूत रही तो इसमें इतना स्कोप है कि आप सोच भी नहीं सकते। आप क्षेत्र भर की खाली बैठी महिलाओं को रोज़गार देने के साथ-साथ युवाओं के लिए ट्रांसपोर्ट जैसे अन्य रोजगार का भी सृजन कर सकेंगे।

महिलाओं का उदाहरण मैं इसलिए दे रही हूं क्योंकि देश की इस पिछली आधी आबादी का उपयोग देश के आर्थिक विकास में नहीं हो पा रहा है। और जब महिलाएं स्वावलंबी होंगी, अपने रचनात्मक कार्यों में व्यस्त होंगी तो इससे कई अन्य सकारात्मक सुधार भी देखने को मिलेंगे!

अगर आप अच्छे से शिक्षित हैं और एकेडमिक्स में रुचि है तो बच्चों के लिए हॉस्टल, कोचिंग, ट्रेनिंग सेंटर, स्पोर्ट सेंटर, सभी चीजों को एक साथ उपलब्ध कराने वाली एक छोटी सी संस्था ही खोल दीजिए। भले ही हर साल पूरे जिले से मात्र 20 बच्चों (सुपर-20) का ही चयन करिए। लेकिन जिनका चयन करिए, फिर उन मेधावी छात्रों को उनके लक्ष्य तक पहुंचा ही दीजिए। फिर आप परिणाम देखिए!

आप अगर थोड़े से मेहनती हैं तो डेयरी उद्योग खोल दीजिए। ये सब उदाहरण मात्र हैं, जो राज्यवार या जिलेवार बदल सकते हैं। मैं केवल उदाहरण मात्र दे रही हूं। कहने का मतलब, ऐसे अनगिनत तरीके हैं। इस नये दौर में अच्छाई यह है कि आज साफ नियत के अच्छे लोगों की कमी भी नहीं है। बस आप स्थानीय स्तर के दलदल से उठिए तो सही। स्थानीय स्तर पर सिमटे रहेंगे तो आपको निंदा, कुंठा, लेग-पुलिंग और संकीर्णता ही बिखरी मिलेगी। आप ख़ुद को भी विस्तार दीजिए। अच्छे लोगों को जोड़िए। उन्हें मंच दीजिए। उनका नेटवर्क बनाइए। उन्हें एक छत के नीचे लाइए। ज़रूरत पड़ जाए तो, जो जिस लायक है, उन्हें उसमें भागीदार बनाइए। संपन्न लोगों से आर्थिक सहयोग भी लीजिए। पढ़े-लिखे लोगों से शैक्षिक मदद लीजिए। प्रशासनिक लोगों से प्रशासनिक मदद लीजिए। ज़रूरत आन पड़े तो मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक से मिलकर सहयोग लीजिए।

लेकिन ये सब चीज़ें एक दिन में नहीं होतीं। पहले आपको ख़ुद को साबित करना पड़ता है। जैसे, 'सुपर-30' वाले आनंद कुमार ने साबित किया। या फिर, जैसे 'किसान चाची', 'एमबीए चायवाला' जैसे अनगिनत लोगों ने साबित किया। इसी तरह से आपको भी ख़ुद को साबित करना होगा कि आपमें योग्यता, जुनून व पोटेंशियल की कमी नहीं है। आपकी नीयत में खोट नहीं है। अन्यथा, ऐसे तो हर गली-मोहल्ले में चार स्वघोषित समाजसेवी टहल रहे हैं। उन्हें कोई 5 रु. भी सहयोग नहीं करेगा। और न ही उन पर कोई विश्वास करेगा।

कहने का मतलब, पहले आपको खुद की सकारात्मकता, ऊर्जा, क्षमता, पोटेंशियल, नीयत इत्यादि को ख़ुद साबित करना होगा। और मेरा विश्वास मानिए, अगर आप में पोटेंशियल है, आपकी नीयत साफ़ है और इरादे नेक हैं, तो कुछ ही वर्षों में आपके शुभ कार्य (जो समाज व मानवता के हित में हो) में सहयोग करने वालों की इतनी भारी भीड़ खड़ी हो जाएगी कि आपकी निगाहें वहां तक पहुंच भी नहीं पाएंगी।

इसलिए जीवन में स्थायित्व मत तलाशें। स्थायित्व जैसी कोई चीज़ नहीं है। जीवन तो जोखिम का नाम है। स्थायित्व तलाशने में युवावस्था का बहुमूल्य समय गंवाने और न मिलने पर अवसाद में जाने या फिर आत्महत्या जैसे अतिवादी क़दम उठाने की बजाय, जीवन का दान करिए। जीवन का दान करने का मतलब है, पूरी कोशिश करिए कि आप अपने जीवन के माध्यम से समाज के लिए उपयोगी बन सकें। उसके लिए ख़ुद में रचनात्मकता विकसित करिए। कौशल सीखिए। महत्वाकांक्षा की बजाय त्याग व समर्पण की भावना लाइए। फिर आप अपने समाज के धरोहर बन जाएंगे। समाज ख़ुद आपको स्थायित्व देगा। और जिन ऊंचे पदों को आप स्थायित्व समझते थे, आप पाएंगे कि वहां बैठे लोग, आपको सुरक्षा देते फिरेंगे। क्योंकि तब वह उनकी ड्यूटी हो जाएगी। क्योंकि तब आप समाज की अमूल्य पूंजी हो चुके होंगे, धरोहर हो चुके होंगे।



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